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________________ अनात्मबुद्धि तथा अनात्मा में आत्मबुद्धि एवं इस प्रकार के अनेक वैपरीत्य दृष्टिगत होते हैं। __ सम्यग्दर्शन का महत्त्व जैन संस्कृति के अतिरिक्त वैदिक संस्कृति में भी स्वीकृत है। महर्षि मनु के अनुसार सम्यग्दर्शन के अभाव में संसार में भ्रमण होता है।"पुराणों में सम्यग्दर्शन का सत्यदृष्टि (विवेक), श्रद्धा (आस्था), समत्व (शम), वैराग्य (निर्वेद), अनुकम्पा तथा मोक्षाभिलाषा (संवेग) इन लक्षणों के रूप में प्रचुर वर्णन है। विवेक-विवेक की प्राप्ति होना परम दुर्लभ है। 93 अनात्मा में आत्मज्ञान . की प्राप्ति तथा आत्मा में अनात्मज्ञान से ही व्यक्ति दुःखी होता है, सुख-दुःख की यथार्थता न समझते हुए तथा उन्हें अपना मानते हुए वास्तविक तथ्य से वंचित रह जाता है।१४ आस्था-श्रद्धा का महत्त्व इतना है कि उसके अभाव में किये गये सभी धार्मिक कार्य व्यर्थ हो जाते हैं। श्रद्धा बिना दिया गया दान फलशून्य तथा तपस्या मात्र अपने देह को कष्ट देती है।९५ समत्व-समत्व मोक्ष का एकमात्र उपाय है, अतः चित्त को समदर्शी बनाना . चाहिए।१६ मिथ्या प्रवर्तित न होने वाला जो मन इष्ट-संयोग में प्रसन्न एवं अनिष्ट-संयोग में उद्विग्न न हो–यही शम का लक्षण है।९९७ वैराग्य क्षय होने के स्वभाव वाली वस्तु में रुचि न होना वैराग्य है।३९८ जगत् के सुख भी वस्तुतः दुःखरूप हैं, अत: वैराग्य से बढ़कर कोई सुख नहीं है / 19 अनुकम्पा सज्जनों में दया स्वभावतः होती है। वे शत्रु-मित्र का भेद मिटाकर सभी के लिए दया का स्रोत प्रवाहित करते हैं। सहनशील, सब पर दया करने वाले, सबके प्रिय, जिनका कोई शत्रु नहीं, ऐसे शान्त स्वभाव साधु सब साधुओं के आभूषण रूप हैं।२० मोक्षाभिलाषा-समस्त शुभाशुभ कर्मों का निर्मलन करके उस मुक्ति रूपी परम-पद को अमूढ़ व्यक्ति ही प्राप्त करता है।१२१ इतना ही नहीं, सम्यग्दर्शन का नामशः भी उल्लेख है-“सम्यग्दर्शन सम्पन्नः स योगी भिक्षुरुच्यते / 122 (2) सम्यग्ज्ञान जो पदार्थ को न्यूनता, अधिकता–विपरीतता-सन्देहरहित जानता है, वह सम्यग्ज्ञान है / 23 सम्यग्दर्शन का लक्षण यथार्थ श्रद्धान है तथा सम्यग्ज्ञान का लक्षण यथार्थ जानना है। सम्यग्ज्ञान कार्य है तथा सम्यग्दर्शन कारण है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के अभाव में भी मति, श्रुतज्ञान पदार्थ को जानते थे पर वे कुमति और कुश्रुत थे। यद्यपि दीपक का जलना और प्रकाश एक ही साथ होता है, जब तक दीपक जलता रहता है तब तक ही उसका प्रकाश रहता है, परन्तु दीपक का जलना प्रकाश का कर्मवाद / 106
SR No.004426
Book TitlePuranome Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharanprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2000
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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