SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हे मुनिश! मैं शक्तिहीन हूँ, भक्ति-प्रेम, उर छलक रहा, स्तवन करुं श्रद्धाबल से, शक्तिबल चाहे अटक रहा। सिंह के मुंह में देख शिशु को, मृगी मृगेन्द्र, से जुझ पड़े, निज शक्ति को बिना विचारे, भाव स्तुति के उमड़ पड़े।। 5 / / अल्पज्ञानी हूँ, ज्ञानी जनों में, मैं हँसी का पात्र अहो, तवभक्ति ही वाचाल बनाती, मौन रहूं फिर कैसे कहो? वसंतऋतु में ही कोयल जब, मीठा-राग सुनाती है, निश्चय ही तब आम्रमंजरी, एक मात्र कारण दर्शाती है।। 6 / / महिमाशाली स्तवन आपका, जन्म मरण से मुक्त करे, देह धारियों के क्षण भर में, पाप-ताप संताप हरे / समस्त लोक आच्छादित जिससे, भ्रमर समान जो काले है, रात्रि के सघन अंधेरे में भी, रवि-किरणों से होवे उजाला है।। 7 / / ஒPPPPS toestemoes toetustieteen testugees अचिन्त्य प्रभावी भगवन मेरे, स्तुति आपकी माता हूँ, अल्पबुद्धि अज्ञानी फिर भी, भक्त्ति के वश हो मचलता हूँ। ओसबिन्दु जब कमल-पत्र पर, मोती की संज्ञा पाता हैं, ऐसे ही यह स्तवन हमेशा, सज्जनों के मन को हरता है।। 8 / / समस्त दोषों का करे निवारण, ऐसी स्तुति का कहना ही क्या? नाम स्मरण भी पाप हरे , यही आपकी भाव-दया। सहस्ररश्मि सूर्य प्रभाज्यों, विकसित करती कमलों को, भव्यजन भी भवजल में रहकर, तव कृपा-किरण से विकसित हो।।9।। 15
SR No.004425
Book TitleRushabh Charitra Varshitap Vidhi Mahatmya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji
PublisherMahavir Prakashan
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy