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________________ Genesiegesses श्रेयांसकुमार ने विस्तार से संयमी जीवन की मर्यादाओं पर (G प्रकाश डाला और आहार बहराने की विधि भी लोगों को समझाई। सभी बातें ध्यानपूर्वक श्रवण करने के पश्चात् कुछ समझदार लोगों र ने एक प्रश्न उठाया। प्रभु ने जैसे शिल्पादिक कलाएँ हमें सिखाईं, 5 वैसे ही हमें मुनि धर्म का ज्ञान क्यों नहीं कराया? "जिज्ञासा का सम्यक् समाधान करते हुए राजकुमार ने शी कहा-सुज्ञजनों! आपकी शंका समुचित है। महाराज ऋषभदेव इस र युग के प्रथम साधु बने। उनसे पूर्व कोई साधु ही नहीं था तो वे " किसको लक्ष्य करके साधु-समाचारी का ज्ञान कराते? तथा एक बात यह भी है कि तीर्थंकर जब तक सर्वज्ञानी नहीं हो जाते तब तक 3 वे संयम से सम्बन्धित विधि निषेध का मार्ग नहीं बताते।" आज से पहले मुझे भी इस बात का ज्ञान नहीं था, लेकिन, र जैसे सूर्योदय होते ही कमलिनी विकसित हो जाती है, उसी प्रकार 5) प्रभु के मुखचन्द्र को देखते ही मुझे जाति स्मरण ज्ञान हो गया। मैं 5) प्रभु के साथ बिताये हुये अपने पूर्वभवों को वर्तमान जीवन की तरह पर ही साक्षात् अनुभव करने लगा हूँ। लोगों ने पुनः जिज्ञासा की-प्रभु के साथ आपका पूर्वभव में क्या सम्बन्ध था? . श्रेयांसकुमार ने उसी माधुर्यता के साथ पुनः कहना प्रारम्भ ॐ किया-'बंधुओं! स्वर्गलोक व मनुष्य लोक में मैंने प्रभु के साथ आठ भव किये / इस भव के तीसरे भव में जब प्रभु वजनाभ चक्रवर्ती थे, तब मैं उनका सारथी था। उनके पिता वज्रसेन को मैंने तीर्थंकर के ( रूप में देखा था। चक्रवर्ती वजनाभजी ने जब संयम स्वीकार किया, तब मैं प्रीतिवश उनके साथ ही साधु बन गया तथा स्वयंप्रभादिक भवों में भी मैं साथ-साथ रहा हूँ। इस प्रकार विस्तार से अपने पूर्वभवों के बारे में बताकर राजकुमार ने सभी की जिज्ञासाओं को , REPORTERSYSTERIORARS postoso escoesto sito esto
SR No.004425
Book TitleRushabh Charitra Varshitap Vidhi Mahatmya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji
PublisherMahavir Prakashan
Publication Year2000
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size13 MB
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