________________ को देखकर कम्पित नहीं होता है, क्षोभित नहीं होता, दुःखित नहीं होता है, वह त्यागी है। परोक्ष रूप से यह पदार्थों की परिणति के सम्बंध में नियतिवाद का प्रतिपादक है। संसार की अपनी एक व्यवस्था और गति है, वह उसी के अनुसार चल रहा है। साधक को उस क्रम का ज्ञाता-दृष्टा तो होना चाहिए, किंतु दृष्टा के रूप में उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए। नियतिवाद की मूलभूत आध्यात्मिक शिक्षा यही हो सकती है कि हम संसार के घटनाक्रम से साक्षी भाव से रहें। इस प्रकार, यह अध्याय गोशालक के मूलभूत आध्यात्मिक उपदेश को ही प्रतिबिम्बित करता है। इसके विपरीत, जैन और बौद्ध साहित्य में जो मंखलिगोशालक के सिद्धांत का निरूपण है, वह वस्तुत: गोशालक की इस आध्यात्मिक अवधारणा में निकाला गया एक विकृत दार्शनिक फलित है। वस्तुतः, ऋषिभाषित का रचयिता गोशालक के सिद्धांतों के प्रति जितना प्रामाणिक है, उतने प्रामाणिक त्रिपिटिक और परवर्ती जैन आगमों के रचयिता नहीं हैं। महाभारत के शांतिपर्व के 177 वें अध्याय में मंखि ऋषि का उपदेश संकलित है। उसमें एक ओर नियतिवाद का समर्थन है; किंतु दूसरी ओर इसमें वैराग्य का उपदेश भी है। इस अध्याय में मूलतः दृष्टा भाव और संसार के प्रति अनासक्ति का उपदेश है। यह अध्याय नियतिवाद के माध्यम से ही अध्यात्म का उपदेश देता है। इसमें यह बताया गया है कि संसार की अपनी व्यवस्था है, मनुष्य अपने पुरुषार्थ से भी उसे अपने अनुसार नहीं मोड़ पाता है, अतः व्यक्ति को दृष्टा भाव रखते हुए संसार से विरक्त हो जाना चाहिए। महाभारत के इस अध्याय की विशेषता यह है कि मंखि ऋषि को नियतिवाद का समर्थक मानते हुए भी उस नियतिवाद के माध्यम से उन्हें वैराग्य की दिशा में प्रेरित बताया गया है। इस आधार पर ऋषिभाषित में मंखलिपुत्र का उपदेश जिस रूप में संकलित मिलता है, वह निश्चित ही प्रामाणिक है। इसी प्रकार, ऋषिभाषित के अध्याय 9 में महाकश्यप और अध्याय 38 में सारिपुत्त के उपदेश संकलित हैं। ये दोनों ही बौद्ध परम्परा से सम्बंधित रहे हैं। यदि हम ऋषिभाषित में उल्लिखित इनके विचारों को देखते हैं, तो स्पष्ट रूप से इसमें हमें बौद्धधर्म की अवधारणा के मूलतत्त्व परिलक्षित होते हैं। महाकश्यप (8)