________________ (स्थान 6) आदि में मिलती है। स्मरण रहे कि यद्यपि जैनागमों में अम्बड को परिव्राजक माना है, फिर भी उसे महावीर के प्रति श्रद्धावान् बताया है। यही कारण है कि इसमें सर्वाधिक जैन अवधारणाएं उपलब्ध हैं। ऋषिभाषित के छब्बीसवें अध्याय में उत्तराध्ययन के पच्चीसवें अध्याय के समान ही ब्राह्मण के स्वरूप की चर्चा है। इसी अध्याय में कषाय, निर्जरा, छः जीवनिकाय और सर्वप्राणियों के प्रति दया का भी उल्लेख है। इकतीसवें पार्श्व नामक अध्ययन में पुनः चातुर्याम, अष्टविध कर्मग्रंथि, चार गति, पंचास्तिकाय तथा मोक्षस्थान के स्वरूप का दिग्दर्शन होता है। इसी अध्याय में जैन परम्परा के समान जीवं को ऊ र्ध्वगामी और पुद्गल को अधोगामी कहा गया है, किंतु पार्श्व तो जैन परम्परा में मान्य ही हैं, अतः इस अध्याय में जैन अवधारणाएं होनी आश्चर्यजनक नहीं है। अब विद्वानों की यह धारणा भी बनी है कि जैन दर्शन के तत्त्वज्ञान पापित्यों की ही देन हैं। शुब्रिग ने भी इसिभासियाइं पर पाश्र्वापत्यों का प्रभाव माना है। पुनः, बत्तीसवें पिंग नामक अध्याय में जैन परम्परा के अनुरूप चारों वर्गों की मुक्ति का भी प्रतिपादन किया गया है। चौतीसवें अध्याय में परिषह और उपसर्गों की चर्चा है। इसी अध्याय में पंच महाव्रत से युक्त, कषाय से रहित, छिन्नस्रोत, अनाश्रव भिक्षु की मुक्ति की भी चर्चा है। पुनः, पैंतीसवें उद्दालक नामक अध्याय में तीन गुप्ति, तीन दण्ड, तीन शल्य, चार कषाय, चार विकथा, पांच समिति, पंचेन्द्रियसंयम, योगसंधान एवं नवकोटि परिशुद्ध, दस दोष से रहित विभिन्न कुलों की परकृत, परनिर्दिष्ट, विगतधूम, शस्त्रपरिणत भिक्षा ग्रहण करने का उल्लेख है। इसी अध्याय में संज्ञा एवं बाईस परिषहों का भी उल्लेख है। इस प्रकार हम देखते हैं कि ऋषिभाषित में अनेक जैन अवधारणाएं उपस्थित हैं, अत: यहां स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या जैन आचार्यों ने ऋषिभाषित का संकलन करते समय अपनी ही अवधारणाओं को इन ऋषियों के मुख से कहलवा दिया अथवा मूलतः ये अवधारणाएं इन ऋषियों की ही थीं और वहां से जैन परम्परा में प्रविष्ट हुईं। यह तो स्पष्ट है कि ऋषिभाषित में उल्लिखित ऋषियों में पार्श्व और महावीर को छोड़कर शेष अन्य सभी या तो स्वतंत्र साधक रहे हैं, या अन्य परम्पराओं के रहे हैं, यद्यपि इनमें कुछ के उल्लेख