SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषिभाषित का प्रश्नव्याकरण से पृथक्करण - अब यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि क्यों पहले तो उसे प्रश्नव्याकरणदशा में डाला गया और बाद में उसे उससे अलग कर दिया गया ? मेरी दृष्टि में पहले तो विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक उपदेशों का संकलन होने से इसे अपने आगम-साहित्य में स्थान देने में महावीर की परम्परा के आचार्यों को कोई बाधा प्रतीत नहीं हुई होगी, किंतु जब जैन संघ सुव्यवस्थित हुआ और उसकी अपनी एक परम्परा बन गई, तो अन्य परम्पराओं के ऋषियों को आत्मसात् करना उसके लिए कठिन हो गया। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण से ऋषिभाषित को अलग करना कोई आकस्मिक घटना नहीं है, अपितु एक उद्देश्यपूर्ण घटना है। यह सम्भव नहीं था कि एक ओर तो सूत्रकृतांग, भगवती 30 और उपासकदशांग 31 में मंखलिगोशालक की तथा ज्ञाताधर्म 32 में नारद की आलोचना करते हुए उनके चरित्र के हनन का प्रयत्न किया जाए और दूसरी ओर उन्हें अर्हत् ऋषि कहकर उनके उपदेशों को आगम वचन के रूप में सुरक्षित रखा जाए। ईसा की प्रथम शती तक जैनसंघ की श्रद्धा को टिकाए रखने का प्रश्न प्रमुख बन गया था। नारद, मंखलिगोशालक, याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि मानकर उनके वचनों को तीर्थंकर की आगम वाणी के रूप में स्वीकार करना कठिन हो गया था, यद्यपि इसे भी जैन आचार्यों का सौजन्य ही कहा जाना चाहिए कि उन्होंने ऋषिभाषित को प्रश्नव्याकरण से अलग करके भी प्रकीर्णक ग्रंथ के रूप में उसे सुरक्षित रखा, साथ ही उसकी प्रामाणिकता को बनाए रखने के लिए उसे प्रत्येकबुद्धभाषित माना। यद्यपि साम्प्रदायिक अभिनिवेश ने इतना अवश्य किया कि उसमें उल्लिखित पार्श्व, वर्द्धमान, मंखलितपुत्र आदि को आगम में वर्णित उन्हीं व्यक्तित्वों से भिन्न कहा जाने लगा। ऋषिभाषित के ऋषियों को प्रत्येकबुद्ध क्यों कहा गया ? ऋषिभाषित के मूलपाठ में केतलिपुत्र को ऋषि, अंबड (25) को परिव्राजक, पिंग (32), ऋषिगिरि (34) एवं श्रीगिरि को ब्राह्मण (माहण) परिव्राजक अर्हत्ऋषि, सारिपुत्र को बुद्ध अर्हत् ऋषि तथा शेष सभी को अर्हत् ऋषि के नाम से सम्बोधित किया। उत्कट (उत्कल) नामक अध्ययन में वक्ता के (82)
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy