________________ किंचित् परवर्ती तथा सूत्रकृतांग उत्तराध्यययन एवं दशवैकालिक जैसे प्राचीन आगम ग्रंथों की अपेक्षा पूर्ववर्ती सिद्ध होता है। इतना सुनिश्चित है कि इसकी छन्दयोजना, शैली एवं भाषा अत्यंत प्राचीन है। मेरी दृष्टि में इसक वर्तमान स्वरूप भी किसी भी स्थिति में ईसा पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से परवर्ती सिद्ध नहीं होता है। स्थानांग में प्राप्त सूचना के अनुसार यह ग्रंथ प्रारम्भ में प्रश्नव्याकरणदशा का एक भाग था, स्थानांग में प्रश्नव्याकरणदशा की जो दस दशाएं वर्णित हैं, उनमें ऋषिभाषित का भी उल्लेख है। समवायांग इसके 44 अध्ययन होने की भी सूचना देता है, अतः यह इनका पूर्ववर्ती तो अवश्य ही है। सूत्रकृतांग में नमि, बाहुक, रामपुत्त, असितदेवल, द्वैपायन, पराशर आदि ऋषियों का एवं उनकी आचारगत मान्यताओं का किंचित् निर्देश है। इन्हें तपोधन और महापुरुष कहा गया है। उसमें कहा गया है कि ये पूर्व ऋषि इस. (आर्हत् प्रवचन) में 'सम्मत' माने गए हैं। इन्होंने (सचित्त) बीज और पानी का सेवन करके भी मोक्ष प्राप्त किया था। अतः, पहला प्रश्न यही उठता है कि इन्हें सम्मानित रूप में जैन परम्परा में सूत्रकृतांग के पहले किस ग्रंथ में स्वीकार किया गया है। मेरी दृष्टि में केवल ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें इन्हें सम्मानित रूप से स्वीकार किया गया। सूत्रकृतांग की गाथा का ‘इह-सम्मता' शब्द स्वयं सूत्रकृतांग की अपेक्षा ऋषिभाषित के पूर्व अस्तित्व की सूचना देता है। ज्ञातव्य है कि सूत्रकृतांग और ऋषिभाषित- दोनों में जैनेतर परम्परा के अनेक ऋषियों, यथा असितदेवल, बाहुक आदि का सम्मानित रूप में उल्लेख किया गया है। यद्यपि दोनों की भाषा एवं शैली भी मुख्यतः पद्यात्मक ही है, फिर भी भाषा के दृष्टिकोण से विचार करने पर सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कंध की भाषा भी ऋषिभाषित की अपेक्षा परवर्ती काल की लगती है, क्योंकि उसकी भाषा महाराष्टी प्राकृत के निकट है, जबकि ऋषिभाषित की भाषा कुछ परवर्ती परिवर्तन को छोड़कर प्राचीन अर्द्धमागधी है। पुनः, जहां सूत्रकृतांग में इतर दार्शनिक मान्यताओं की समालोचना की गई है, वहां ऋषिभाषित में इतर परम्परा के ऋषियों का सम्मानित रूप में ही उल्लेख हुआ है। यह सुनिश्चित सत्य है कि यह ग्रंथ जैनधर्म एवं संघ के सुव्यवस्थित होने के पूर्व लिखा गया था। इस ग्रंथ के अध्ययन से यह भी स्पष्ट