________________ अन्यतीर्थिक ऋषियों के वचनों को उससे अलग किया जा सकता था और दूसरी ओर उसमें निमित्तशास्त्र सम्बंधी नई सामग्री जोड़कर उसकी प्रामाणिकता को भी सिद्ध किया जा सकता था, किंतु जब परवर्ती आचार्यों ने इसका दुरुपयोग होते देखा होगा और मुनिवर्ग को साधना से विरत होकर इन्हीं नैमित्तिक विद्याओं की उपासना में रत देखा होगा, तो उन्होंने यह नैमित्तिक विद्याओं से युक्त विवरण उससे अलग कर उसमें पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार वाला विवरण रख दिया। प्रश्नव्याकरण के टीकाकार अभयदेव एवं ज्ञानविमल ने भी विषय-परिवर्तन के लिए यही तर्क स्वीकार किया है। 23 प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु कब उससे अलग कर दी गई और उसके स्थान पर पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार-रूप नवीन विषयवस्तु रख दी गई, यह प्रश्न भी विचारणीय है। अभयदेवसरि ने अपनी स्थानांग और समवायांग की टीका में भी यह स्पष्ट निर्देश किया है कि वर्तमान प्रश्नव्याकरण में इनमें सूचित विषयवस्तु उपलब्ध नहीं है। 24 मात्र यही नहीं, उन्होंने पांच आश्रवद्वार और पांच संवरद्वार वाले वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण पर ही टीका लिखी है, अतः वर्तमान संस्करण की निम्नतम सीमा अभयदेव के काल अर्थात् ईस्वी सन् 1080 से पूर्ववर्ती होना चाहिए। पुनः, अभयदेव ने प्रश्नव्याकरण में एक श्रुतस्कंध है या दो श्रुतस्कंध हैं, इस समस्या को उठाते हुए अपनी वृत्ति की पूर्वपीठिका में अपने से पूर्ववर्ती आचार्य का मत उद्धृत किया है- ‘दो सुयसंघा पण्णत्ता आसवदारा य संवरदारा य।' अभयदेव ने पूर्वाचार्य की मान्यता को अस्वीकार भी किया है और यह भी कहा है कि यह दो श्रुतस्कंधों की मान्यता रूढ़ नहीं है। सम्भवतः, उन्होंने अपना एक श्रुतस्कंध सम्बंधी मत समवायांग और नंदी के आधार पर बनाया हो। इसका अर्थ यह भी है कि अभयदेव के पूर्व भी प्रश्नव्याकरण के वर्तमान संस्करण पर प्राकृत भाषा में ही कोई व्याख्या लिखी गई थी, जिसमें दो श्रुतस्कंध की मान्यता को पुष्ट किया गया था। उसका काल अभयदेव से दूसरी-तीसरी शताब्दी पूर्व अर्थात् ईसा की आठवीं शताब्दी के लगभग अवश्य रहा होगा। पुनः, आचार्य जिनदासगणि महत्तर ने नंदीसूत्र पर शक संवत् 598 अर्थात् ईस्वी सन् 676 में अपनी चर्णि समाप्त की थी। उस