SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मज्झिमनिकाय, संयुत्तनिकाय और दीघनिकाय में भी उदकरामपुत्त का उल्लेख है। जातक में उल्लेख है कि बुद्ध ने उदकरामपुत्त से ध्यान की प्रक्रिया सीखी थी। यद्यपि उन्होंने उसकी मान्यताओं की समालोचना भी की है, फिर भी उनके मन में उसके प्रति बड़ा आदर था और ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्हें धर्म के उपदेश योग्य मानकर उनकी तलाश की थी, किंतु तब तक उनकी मृत्यु हो चुकी थी। 10 इन सभी आधारों से यह स्पष्ट है कि सूत्रकृतांग में उल्लिखित रामपुत्त (रामगुत्त) वस्तुतः पालि साहित्य में वर्णित उदकरामपुत्त ही है, अन्य कोई नहीं। उदकरामपुत्त की साधना पद्धति ध्यान-प्रधान और मध्यमार्गी थी, ऐसा भी पालि साहित्य से सिद्ध होता है। सूत्रकृतांग में भी उन्हें आहार करते हुए मुक्ति प्राप्त करने वाला बताकर इसी बात की पुष्टि की गई है कि वे कठोर तप साधना के समर्थक न होकर मध्यममार्ग के समर्थक थे। यही कारण था कि बुद्ध का उनके प्रति झुकाव था। पुनः; सूत्रकृतांग में इन्हें पूर्वमहापुरुष कहा गया है। यदि सूत्रकृतांग के रामगुप्त की पहचान समुद्रगुप्त के पुत्र रामगुप्त से करते हैं, तो सूत्रकृतांग की तिथि कितनी भी आगे ले जाई जाए, किंतु किसी भी स्थिति में वह उसमें पूर्वकालिक ऋषि के रूप में उल्लिखित नहीं हो सकते, साथ ही साथ यदि सूत्रकृतांग का रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र रामगुप्त है, तो उसने सिद्ध-प्राप्ति की, ऐसा कहना भी जैन दृष्टि से उपयुक्त नहीं होगा, क्योंकि ईसा की दूसरी तीसरी शताब्दी तक जैनों में यह स्पष्ट धारणा बन चुकी थी कि जम्बू के बाद कोई भी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सका है, जबकि मूल गाथा में सिद्धा' विशेषण स्पष्ट है। पुनः, रामगुप्त का उल्लेख बाहुक के पूर्व और नमि के बाद है, इससे भी लगता है कि रामगुप्त का अस्तित्व इन दोनों के काल के मध्य ही होना चाहिए। बाहुक का उल्लेख इसिभासियाई में है और इसिभासियाई किसी भी स्थिति में ईसा पूर्व की ही रचना सिद्ध होता है। अतः, सूत्रकृतांग में उल्लिखित रामगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र नहीं हो सकता। पालि साहित्य में भी हमें 'बाहिय' या 'बाहिक' का उल्लेख उपलब्ध होता है, जिसने बुद्ध से चार स्मृति-प्रस्थानों का उपदेश प्राप्त कर उनकी साधना के द्वारा अर्हत् पद को प्राप्त किया था। पालि त्रिपिटक से यह भी सिद्ध होता है कि बाहिय या बाहिक पूर्व में स्वतंत्र रूप से साधना करता (37)
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy