________________ छुटकारा पाने के लिए तथा शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की निवृत्ति हेतु प्राणी हिंसा करता है (1/1/4) / आचारांग का सुखवादी दृष्टिकोण आधुनिक मनोविज्ञान हमें यह भी बताता है कि सुख सदैव अनुकूल इसलिए होता है कि उसका जीवनशक्ति को बनाए रखने की दृष्टि से दैहिक मूल्य है और दुःख इसलिए प्रतिकूल होता है कि वह जीवन शक्ति का हास करता है। यही सुख-दुःख का नियम समस्त प्राणीय व्यवहार का चालक है। आचारांग भी प्राणीय व्यवहार के चालक के रूप में इसी सुख-दुःख के नियम को स्वीकार करता है (आचारांग 1/2/3) / अनुकूल के प्रति आकर्षण और प्रतिकूल के प्रति विकर्षण- यह इंद्रिय स्वभाव है। अनुकूल विषयों की ओर प्रवृत्ति, प्रतिकूल विषयों से निवृत्ति- यह एक नैसर्गिक तथ्य है, क्योंकि सुख अनुकूल और दुःख प्रतिकूल होता है। वस्तुतः, प्राणी सुख को प्राप्त करना चाहता है और दुःख से बचना चाहता है। वासना ही अपने विधानात्मक रूप में सुख और निषेधात्मक रूप में दुःख का रूप ले लेती है, जिससे वासना की पूर्ति हो, वही सुख और जिससे वासना की पूर्ति न हो अथवा वासना पूर्ति में बाधा उत्पन्न होती हो, वह दुःख। इस प्रकार, वासना से ही सुख-दुःख के भाव उत्पन्न होकर प्राणीय व्यवहार का नियमन करने लगते हैं। . दमन का प्रत्यय और आचारांग सामान्यतया, आचारांग में इंद्रिय-संयम पर काफी बल दिया गया है। वह तो शरीर को सुखा डालने की बात भी कहता है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या पूर्ण इंद्रिय-निरोध सम्भव है। आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से इंद्रिय व्यापारों का निरोध एक अस्वाभाविक तथ्य है। आंख के समक्ष जब उसका विषय प्रस्तुत होता है, तो उसके सौंदर्य दर्शन से वंचित नहीं रह सकती। भोजन करते समय स्वाद को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः, यह विचारणीय प्रश्न है कि इंद्रिय दमन के सम्बंध में क्या आचारांग का दृष्टिकोण आधुनिक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सहमत है?आचारांग इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यही बात कहता है कि इंद्रिय व्यापारों के निरोध का अर्थ इंद्रियों को अपने विषयों से विमुख करना