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________________ भाषा और जैन प्राकृत के विविध प्रयोग शीर्षक के अंतर्गत महाराष्ट्री प्राकृत से जैन प्राकृत (अर्धमागधी) के अंतर की लगभग चार पृष्ठों में विस्तृत चर्चा की है और विविध व्यंजनों के विकार, अविकार और आगम को समझाया भी है, फि र भी उसमें 'न' और 'ण' के सम्बंध में कोई चर्चा नहीं की है। सम्भवतः उन्होंने 'ण' के प्रयोग को ही उपयुक्त मान लिया था, किंतु मेरा विद्वानों से अनुरोध है कि उन्हें अभिलेखों और प्राचीन हस्तप्रतों में उपलब्ध नमो' पाठ को अधिक उपयुक्त मानना चाहिए। वस्तुतः मुनि श्री पुण्यविजय जी ने जिस काल में अंगविजा के सम्पादन का दुरूह कार्य पूर्ण किया, उस समय तक 'न' और 'ण' में कौन प्राचीन है यह चर्चा प्रारम्भ ही नहीं हुई थी। मेरी जानकारी में इस चर्चा का प्रारम्भ आदरणीय डॉ. के.आर. चंद्रा के प्रयत्नों से हुआ है, अतः भविष्य में जब कभी इसका पुनः सम्पादन, अनुवाद और प्रकाशन हो तब इन तथ्यों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। वस्तुतः महान अध्यवसायी और पुरुषार्थी मुनि श्री पुण्यविजय जी के श्रम का ही यह फल है कि आज हमें अंगविज्जा जैसा दुर्लभ ग्रंथ अध्ययन के लिए उपलब्ध है। विद्वद्गण उनके इस महान कार्य को कभी नहीं भूलेंगे। आज आवश्यकता है तो इस बात की कि इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ को हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में अनुदित करके प्रकाशित किया जाए, ताकि प्राकृत भाषा से अपरिचित लोग भी भारतीय संस्कृति की इस अनमोल धरोहर का लाभ उठा सकें। : अंगविजा भारतीय निमित्त शास्त्र की विविध विधाओं पर प्रकाश डालने वाला अद्भुत एवं प्राचीनतम ग्रंथ है। इसी प्रकार जैन तंत्र शास्त्र का भी यह अनमोल एवं प्रथम ग्रंथ है। परम्परागत मान्यता और इस ग्रंथ में उपलब्ध आंतरिक साक्ष्य इस तथ्य के प्रमाण हैं कि यह ग्रंथ दृष्टिवाद के आधार पर निर्मित हुआ है (बारसमे अंगे दिट्ठवाए.... सुत्तक्कियं तओ इसमें भारतीय संस्कृति और इतिहास की अमूल्य निधि छिपी हुई है। मुनिश्री पुण्यविजय जी ने अति श्रम करके इसके विभिन्न परिशिष्टों में उसका संकेत दिया है और उसी आधार पर वासुदेवशरण अग्रवाल ने इसकी विस्तृत भूमिका लिखी है। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अंगविजा भारतीय संस्कृति का अनमोल ग्रंथ है। इसका अध्ययन अपेक्षित है। प्रस्तुत प्रसंग में मैंने अंगविज्जा के परिप्रेक्ष्य में मात्र नमस्कारमंत्र की विकास यात्रा की चर्चा की। आगे इच्छा है कि अंगविजा के आधार पर लब्धि पदों की विकास यात्रा की चर्चा की जाए। ये लब्धि पद सूरिमंत्र और जैन तांत्रिक साधना (205)
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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