________________ मुनियों , जो आगम विरुद्ध आचरण करते हैं, के सम्पर्क, सत्कार, सम्मान आदि को भी मिथ्यात्व का कारण माना है और सद्गृहस्थ को उनसे दूर रहने का ही निर्देश दिया है। आचार्य हरिभद्र श्रावक धर्म के आधारभूत तत्त्व सम्यक्दर्शन की इस व्याख्या के प्रसंग में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यदि स्वयं इन शिथिलाचारियों के उपदेश का प्रतिषेध करने में असमर्थ हो तो, उनके उ पदेश सुनने की अपेक्षा अपने कानों को बंद कर लेना ही अच्छा है। इस प्रकार उन्होंने गृहस्थसाधकों को स्पष्ट रूप से यह निर्देश दिया है कि मनसा, वाचा और कर्मणा न तो मिथ्यात्व का सेवन करें, न कराएं और न मिथ्यात्व का सेवन करने का अनुमोदन करें। आचार्य अनुमोदन की सूक्ष्मता से चर्चा करते हुए यहां तक कहते हैं कि मिथ्यादृष्टियों के मध्य में निवास करना, उनके साथ खान-पान करना और उनके विचारों का प्रतिश्रवण करना भी उस विशिष्ट स्थिति में मिथ्यात्व का अनुमोदन हो जाता है, जब उससे सम्यक्त्व के दूषित होने की सम्भावना हो। यद्यपि इस चर्चा के प्रसंग में हरिभद्र यह अवश्य स्वीकार करते हैं कि मात्र साथ रहने अथवा खान-पान आदि साथ-साथ करने से मिथ्यात्व का अनुमोदन नहीं हो जाता हैं। आचार्य की दृष्टि में इन परिस्थितियों में मिथ्यात्व का अनुमोदन तभी होता है, जब व्यक्ति स्वयं उनमें सम्मिलित होकर उन्हें अच्छा समझने लगता है। मात्र परस्पर एक दूसरे के साथ रहने आदि से ही किसी व्यक्ति को एक दूसरे का समर्थक नहीं माना जा सकता है। नगर में राजा, अमात्य, श्रेष्ठी, कलाजीवी, वणिक, मालाकार, स्वर्णकार एवं सेवकजन सब साथ-साथ रहते हैं, फिर भी उन्हें. एक दूसरे का समर्थक नहीं कहा जाता है। वस्तुतः संवास या परस्पर भोग-उपभोग मात्र से अनुमति सम्भव नहीं है। आचार्य तर्क देते हैं कि यदि यह हो तो फिर सम्यक्त्व में भी उन सबकी अनुमति मानना होगी। पुनः ऐसी स्थिति में अभव्य जनों का भी सम्यक्त्व में अनुमोदन मानना होगा, जिसे जैन परम्परा स्वयं स्वीकार नहीं करती है। अंत में आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि सम्यक्त्व के साधक श्रावक को मिथ्यात्व से विरत होकर गुरु के समीप जाकर वीतराग अरहंत परमात्मा मेरे देव अर्थात् आराध्य हैं, अहिंसा आदि पांच महाव्रतों का परिपालन करने वाले साधु ही मेरे गुरु हैं और अहिंसा ही धर्म है ऐसी प्रतिपत्ति स्वीकार करनी चाहिए। सम्यक्त्व की चर्चा के प्रसंग में आचार्य हरिभद्र ने आठ दर्शनाचारों का उल्लेख भी किया है