________________ नमस्कार मंत्र की चूलिका नहीं मिली है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह ग्रंथ और इसका मंत्र-विभाग प्राचीन है, क्योंकि नमस्कार मंत्र की चूलिका सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध होती है, अतः इस ग्रंथ का मंत्र भाग ई.पू. (दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती के मध्य और आवश्यकनियुक्ति) के पूर्व निर्मित हैयह माना जा सकता है। दूसरे, अंगविजा के मंत्र भाग में सूरिमंत्र और वर्द्धमान विद्या का भी पूर्व रूप मिलता है। ज्ञातव्य है कि ऋद्धिपद, लब्धिपद या सूरिमंत्र के रूप में दिगम्बर परम्परा में षखण्डागम के चतुर्थ खण्ड के वेदना महाधिकार के कृति अनुयोगद्वार में 44 लब्धि पदों का उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रश्नव्याकरणसूत्र में, तत्त्वार्थभाष्य में, गणधरवलय में और सूरिमंत्र में भी इन पदों का उल्लेख मिलता है। गणधरवलय में इनकी संख्या 45 है। सूरिमंत्र की विभिन्न पीठों में इनकी संख्या अलग-अलग है। जहां तक अंगविजा का प्रश्न है, वे सभी ऋद्धिपद या लब्धिपद तो नहीं मिलते हैं, किंतु उनमें से बहुत कुछ ऋद्धि या लब्धिपद पूर्वोल्लेखित अष्टम अध्याय के संग्रहणी पटल में मिलते हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि अंगविजा का मंत्र विभाग जैन मांत्रिक साधना का प्राचीनतम रूप प्रस्तुत करता है। आचार्य हरिभद्रकृत सावमधम्मविहिपयरणं : एक परिचय प्रस्तुत कृति में आचार्य हरिभद्र ने श्रावक शब्द के व्युत्पत्तिपरक अर्थ को स्पष्ट करते हुए 'जिनवाणी' का श्रवण करने वाले को श्रावक कहा है, किंतु यह पर्याप्त नहीं हैं, उनकी दृष्टि में श्रावक होने के लिए कुछ योग्यताएं भी अपेक्षित हैं। उन्होंने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो श्रावक धर्म का अधिकारी है अर्थात् श्रावक होने की पात्रता रखता है उसके द्वारा ही श्रावक धर्म का आचरण सम्भव है। अनाधिकारी या अपात्र द्वारा किया गया श्रावक धर्म का परिपालन भी जिनेश्वर देव की आज्ञाभंग के दोष से दूषित होने के कारण अधर्म ही बन जाता है। आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में श्रावक धर्म का अधिकारी या पात्र वही (190)