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________________ आज भी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सत्य है। महावीर ने कहा था- आत्मा समत्वरूप है और समत्व ही आत्मा का साध्य है (आयाए सामाइए, आयासामाइस्स अट्टे-भगवतीसूत्र)। वस्तुतः, जहां भी जीवन है, चेतना है, वहां समत्व के संस्थापन के अनवरत प्रयास चल रहे हैं। परिवेशजन्य विषमताओं को दूर कर समत्व के लिए प्रयासशील बने- यह जीवन या चेतना का मूल स्वभाव है। शारीरिक एवं मानसिक स्तर पर समत्व का संस्थापन ही जीवन का लक्षण है। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में - ‘जीव गतिशील संतुलन है', (जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि, पृ.२५९)। स्पेंसर के अनुसार परिवेश में निहित तथ्य जीवन के संतुलन को भंग करते रहते हैं और जीवन अपनी क्रियाशीलता के द्वारा पुनः इस संतुलन को बनाने का प्रयास करता है। यह संतुलन बनाने का प्रयास ही जीवन की प्रक्रिया है (फर्स्ट प्रिंसिपल्स-स्पेंसर, पृ.६६)। विकासवादियों ने इसे ही अस्तित्व के लिए संघर्ष कहा है, किंतु मेरी अपनी दृष्टि में इसे अस्तित्व के लिए संघर्ष कहने की अपेक्षा समत्व के संस्थापन का प्रयास कहना ही अधिक उचित है। समत्व के संस्थापन एवं समायोजन की प्रक्रिया ही जीवन का महत्वपूर्ण लक्षण है। - इस प्रकार जैन दर्शन में समभाव या वीतराग-दशा को ही नैतिक जीवन का आदर्श माना गया है। यह बात मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सही उतरती है। संघर्ष नहीं, अपितु समत्व ही जीवन का आदर्श हो सकता है, क्योंकि यही हमारा स्वभाव है और जो स्व- स्वभाव है, वही आदर्श है। स्वभाव से भिन्न आदर्श की कल्पना अयथार्थ है। स्पेन्सर, डार्विन एवं आर्स प्रभृति कुछ पाश्चात्य विचारक संघर्ष को ही जीवन का स्वभाव मानते हैं, लेकिन यह एक मिथ्या धारणा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार वस्तु का स्वभाव वह होता है, जिसका निराकरण नहीं किया जा सकता। जैन दर्शन के अनुसार नित्य और निरपवाद वस्तुधर्म ही स्वभाव है। यदि हम इसे कसौटी पर कसें, तो संघर्ष एवं तनाव जीवन का स्वभाव सिद्ध नहीं होता है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य स्वभाव संघर्ष है, मानवीय इतिहास वर्ग संघर्ष की कहानी है। संघर्ष ही जीवन का नियम है, किंतु यह एक मिथ्या धारणा है। यदि संघर्ष ही जीवन का नियम है, तो फिर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद संघर्ष का निराकरण क्यों करना चाहता है, संघर्ष मिटाने (15)
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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