SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुशीलन से ऐसा लगता है कि यहां पर बौद्ध धर्म का प्रभाव अधिक था और स्वयं बुद्ध का इस नगर के प्रति विशिष्ट आकर्षण था। यह ठीक वैसा ही था, जैसा कि महावीर का राजगृही के प्रति। यही कारण है कि बुद्ध ने यहां अनेक चातुर्मास किए और प्रायः इसी के समीपवर्ती क्षेत्र में विचरण करते थे, जबकि महावीर ने सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह और उसके समीपवर्ती उपनगर नालंदा में किए। फिर भी, जैन आगम साहित्य के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावस्ती का जैन परम्परा के साथ भी निकट सम्बंध रहा है। उसे तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथ के चार कल्याणकों की पावन भूमि माना जाता है। - - -- !! अंगविज्जा में जैन मंत्रों का प्राचीनतम स्वरूप !! 'अंगविजा' पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत निमित्तशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण जैन ग्रंथ है। इसका वास्तविक रचनाकाल क्या है? यह निर्णय तो अभी नहीं हो . सका, किंतु इसकी भाषा, विषयवस्तु आदि की दृष्टि से विचार करने पर ऐसा लगता है कि यह ईस्वी सन् के पूर्व का एक प्राचीन ग्रंथ है। भाषा की दृष्टि से इसमें प्राचीन अर्द्धमागधी एवं शौरसेनी के अनेक लक्षण उपलब्ध होते हैं और इस दृष्टि से इसकी भाषा उपलब्ध श्वेताम्बर मान्य आगमों की अपेक्षा प्राचीन लगती है। नमस्कार मंत्र का प्राचीनतम रूप, जो खारवेल (ई.पू. दूसरी शती) के अभिलेख में पाया जाता है, वह इसमें भी मिलता है। मेरी दृष्टि में यह ईसा पूर्व दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती के मध्य की रचना है। इसका वास्तविक काल तो इसके सम्पूर्ण अध्ययन के बाद ही निर्धारित किया जा सकता है। सामान्यतया, यह सांस्कृतिक सामग्री से भरपूर फलादेश या निमित्तशास्त्र का ग्रंथ है, किंतु इसमें अनेक प्रसंगों में जैन परम्परा में मान्य मंत्रों का उल्लेख होने से इसे जैन तंत्रशास्त्र का भी प्रथम ग्रंथ कहा जा सकता है। इसमें कुल साठ अध्याय हैं। जैन साहित्य के वृहद् इतिहास, भाग 5 (पृ.२१४) में अम्बालाल शास्त्री ने इसका संक्षिप्त विवरण दिया है, जो इस प्रकार है 'आरम्भ में अंगविद्या की प्रशंसा की गई है और उसके द्वारा सुखदुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय, सुभिक्ष-दुर्भिक्ष, जीवन-मरण आदि बातों
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy