SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाप्त नहीं हुआ है, उसे कृत नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत, महावीर की मान्यता यह थी कि जो कार्य हो रहा है, उसे सापेक्षिक रूप से कृत कहा जा सकता है, क्योंकि उस कार्य का कुछ अंश तो हो ही चुका है। इस प्रकार, महावीर की संघ व्यवस्था में प्रथम विद्रोह का सूत्रपात श्रावस्ती नगर में ही हुआ था। पुनः, महावीर और मंखलिपुत्रगोशालक के मध्य विवाद की चरम परिणति भी श्रावस्ती में हुई थी। भगवतीसूत्र के 15 वें शतक के अनुसार आजीवक परम्परा के मंखलिपुत्रगोशालक ने अपना २४वां चातुर्मास श्रावस्ती नगरी के हालाहला नामक कुंभकारी की आपण (दुकान) में किया था। उस समय भगवान् महावीर श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक चैत्य में चातुर्मासार्थ विराजित थे। भगवतीसूत्र में उपलब्ध विवरण के अनुसार प्रथम तो गोशालक ने भिक्षार्थ गए महावीर के श्रमणों के समक्ष श्रावस्ती की सड़कों पर ही महावीर की आलोचना की। पुनः, कोष्ठक वन में आकर महावीर से विवाद किया तथा उन पर तेजोलेश्या फेंकी। उस तेजोलेश्या के कारण महावीर के दो शिष्य सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मरण को प्राप्त होते हैं और स्वयं महावीर भी अस्वस्थ हो जाते हैं। भगवतीसूत्र के १५वें शतक में इस सम्पूर्ण घटनाक्रम का विस्तारपूर्वक उल्लेख है। ऐतिहासिक दृष्टि से हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि महावीर और गोशालक के मध्य विवाद की चरम परिणिति भी श्रावस्ती नगर में हुई थी। किंतु, जहां श्रावस्ती में उस युग के विभिन्न धर्म सम्प्रदायों के बीच विरोध और संघर्ष के स्वर मुखर हुए थे, वहीं महावीर और पार्श्व की परम्पराओं के सम्मिलन का स्थल भी यही नगर था। श्रावस्ती नगर के तिन्दुक उद्यान में पार्वापत्य परम्परा के आर्य केशी विराजित थे, वहीं इसी नगर के कोष्ठक उद्यान में महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम विराजित थे। दोनों आचार्यों के शिष्य नगर में जब एक दूसरे से मिलते थे, तो उनमें यह चर्चा होती थी कि एक ही लक्ष्य के लिए प्रवृत्त इन दोनों परम्पराओं में यह मतभेद क्यों है? केशी और गौतम अपने शिष्यों की इन शंकाओं के समाधान के लिए तथा महावीर और पार्श्व की परम्पराओं के बीच कोई समन्वय-सेतु बनाने के लिए परस्पर मिलने का निर्णय करते हैं और गौतम ज्येष्ठ कुल का विचार करके स्वयं केशी श्रमण के पास मिलने हेतु जाते हैं। केशी श्रमण गौतम को सत्कारपूर्वक आसन प्रदान करते हैं। श्रावस्ती के अनेक व्यक्ति भी दोनों आचार्यों की इस विचार- चर्चा को सुनने
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy