________________ ऋषिभाषित में उत्कटवादियों (चार्वाकों) से सम्बंधित अध्ययन के अंत में कहा गया है एवं से सिद्ध बुद्धे विरते विपावे दन्ते दविए अलं ताइ णो पणरवि इच्चत्थं हव्वमागच्छति त्तिबेमि। . अर्थात्, इस प्रकार वह सिद्ध, बुद्ध, विरत, निष्पाप, जितेन्द्रिय, करुणा से द्रवित एवं पूर्ण त्यागी बनता है और पुनः इस संसार में नहीं आता है आदि कहा गया है, अतः देहात्मवादी होकर लोकायत दार्शनिक भौतिकवादी या भोगवादी नहीं थे। वे भारतीय ऋषिपरम्परा के ही अंग थे, जो निवृत्तिमार्गी नैतिक दर्शन के ही समर्थक थे। वे अनैतिक जीवन के समर्थक नहीं थे- उन्हें विरति या दान्त कहना उनको त्यागमार्ग एवं नैतिक जीवन का सम्पोषक ही सिद्ध करना है। वस्तुतः, लोकायत दर्शन को जो भोगवादी जीवन का समर्थक कहा जाता है, वह उनकी तत्त्वमीमांसा के आधार पर विरोधियों द्वारा प्रस्तुत निष्कर्ष हैं। यदि सांख्य का आत्म-अकर्त्तावाद, वेदांत का ब्रह्मवाद, बौद्धदर्शन का शून्यवाद और विज्ञानवाद तप, त्याग के सम्पोषक माने जा सकते हैं, तो देहात्मवादी लोकायत दर्शन को उसी मार्ग का सम्पोषक मानने में कौनसी बाधा है? वस्तुतः, चार्वाक या लोकायत दर्शन देहात्मवादी या तज्जीवतच्छरीरवादी होकर नैतिक मूल्यों और सदाचार का सम्पोषक रहा है। इस सीमित जीवन को सन्मार्ग में बिताने का संदेश देता है, उसका विरोध कर्मकाण्ड से रहा है न कि सात्त्विक नैतिक जीवन से। यह बात ऋषिभाषित के उपर्युक्त विवरण से सिद्ध हो जाती है। संदर्भ - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-१, भूमिका, पृ.३९ दीघनिकाय, पयासीसुत्त राजप्रश्नीयसूत्र (मधुकर मुनि), भूमिका, पृ.१८ ऋषिभाषित (इसिभासियाई) अध्याय विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1549-2024 आचारांग (मधुकर मुनि) 1/1/1/1-3 'एवमेगेसिं णो णातं भवित-अत्थि मे आया उववाइए... ...से आयावादी लोगावादी काम्मावादी किरियावादी।' (1780 & in x i w