SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रविष्ट हो रहे हो, उस समय कोई पुरुष शौचालय में खड़ा होकर यह कहे कि हे स्वामिन् ! यहां आओ ! कुछ समय के लिए यहां बैठो, खड़े होओ, तो क्या तुम उस पुरुष की बात को स्वीकार करोगे। निश्चय ही तुम उस अपवित्र स्थान पर जाना नहीं चाहोगे। इसी प्रकार, हे राजन् ! देवलोक में उत्पन्न देव वहां के दिव्य कामभागों में इतने मूर्च्छित, गृधु और तल्लीन हो जाते हैं कि वे मनुष्यलोक में आने की इच्छा नहीं करते। दूसरे, देवलोक सम्बंधी दिव्य भोगों में तल्लीन हो जाने के कारण उनका मनुष्य सम्बंधी प्रेम व्युच्छिन्न हो जाता है, अत: वे मनुष्यलोक में नहीं आ पाते। तीसरे, देवलोक में देव वहां के दिव्य कामभोगों में मूञ्छित या तल्लीन होने के कारण, अभी जाता हूं, अभी जाता हूं- ऐसा सोचते रहते हैं, किंतु उतने समय में अल्पायुष्य वाले मनुष्य कालधर्म को प्राप्त हो जाते हैं। (क्योंकि देवों का एक दिन-रात मनुष्यलोक के सौ वर्ष के बराबर होता है, अतः एक दिन का भी विलम्ब होने पर वहां मनुष्य कालधर्म को प्राप्त हो जाता है।) पुनः, मनुष्यलोक इतना दुर्गन्धित और अनिष्टकर है कि उसकी दुर्गन्ध के कारण देव मनुष्यलोक में आना नहीं चाहते हैं। अतः, तुम्हारी दादी के स्वर्ग से नहीं आने पर यह श्रद्धा रखना उचित नहीं है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। केशीकुमार श्रमण के इस प्रत्युत्तर को सुनकर राजा ने एक अन्य तर्क प्रस्तुत किया। राजा ने कहा कि मैंने एक चोर को जीवित ही लोहे की कुम्भी में बंद करवाकर अच्छी तरह से लोहे से उसका मुख ढंक दिया, फिर उस पर गरम लोहे और रांगे से लेप करा दिया तथा उसकी देख-रेख के लिए अपने विश्वासपात्र पुरुषों को रख दिया। कुछ दिन पश्चात् मैंने उस कुम्भी को खुलवाया, तो देखा कि वह मनुष्य मर चुका था, किंतु उस कुम्भी में कोई भी छिद्र, विवर या दरार नहीं थी, जिससे उसमें बंद पुरुष का जीव बाहर निकला हो, अतः जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं। - इसके प्रत्युत्तर में केशीकुमार श्रमण ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया जिस प्रकार एक ऐसी कुटागारशाला, जो अच्छी तरह से आच्छादित हो, उसका द्वार गुप्त हो, यहां तक कि उसमें कुछ भी प्रवेश नहीं कर सके, यदि उस कुटागारशाला में कोई व्यक्ति जोर से भेरी बजाए, तो तुम बताओ कि वह आवाज बाहर सुनाई देगी कि नहीं? निश्चय ही वह आवाज सुनाई देगी। अतः, जिस प्रकार शब्द अप्रतिहत गतिवाला है, उसी प्रकार आत्मा भी अप्रतिहत
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy