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________________ कलापरक पक्षों का समाहार हुआ है, उस पर भक्तिमार्गी परम्परा का प्रभाव है। निवृत्तिमार्गी परम्परा होने के कारण प्रारम्भ में तो इनका वर्जन ही किया था, किंतु कालांतर में भक्तिमार्ग ने जैनधर्म को प्रभावित किया और ये तत्त्व उसमें प्रविष्ट हो गए। यद्यपि इस माध्यम से जैनाचार्यों ने मनुष्य के वासनात्मक पक्ष का उदात्तीकरण किया है, ताकि व्यक्ति को एक सम्यक् दिशा दी जा सके। राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव द्वारा की गई जिनपूजा का वर्णन प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है- 'सूर्याभदेव ने व्यवसाय सभा में रखे हुए पुस्तकरत्न को अपने हाथ में लिया, हाथ में लेकर उसे खोला, खोलकर उसे पढ़ा और पढ़कर धार्मिक क्रिया करने का निश्चय किया, निश्चय करके पुस्तकरत्न को वापस रखा, रखकर सिंहासन से उठा और नंदा नामक पुष्करिणी पर आया। नंदा पुष्करिणी में प्रविष्ट होकर उन्होंने अपने हाथ-पैरों का प्रक्षालन किया तथा आचमन कर पूर्ण रूप से स्वच्छ और शुचिभूत होकर स्वच्छ श्वेत जल से भरी हुई शृंगार (झारी) तथा उस पुष्करिणी में उत्पन्न शतपत्र एवं सहस्रपत्र कमलों को ग्रहण किया, फिर वहां से चलकर जहां सिद्धायतन (जिनमंदिर) था, वहां आए। उसमें पूर्वद्वार से प्रवेश करके जहां देवछन्दक और जिनप्रतिमा थी वहां आकर जिनप्रतिमाओं को प्रणाम किया। प्रणाम करके लोममयी प्रमार्जनी हाथ में ली, प्रमार्जनी से जिनप्रतिमा को प्रमार्जित किया। प्रमार्जित करके सुगंधित जल से उन जिनप्रतिमाओं का प्रक्षालन किया। प्रक्षालन करके उन पर गोशीर्ष चंदन का लेप किया। गोशीर्ष चंदन का लेप करने के पश्चात् उन्हें सुवासित वस्त्रों से पोंछा, पोंछकर जिनप्रतिमाओं को अखण्ड देवदूष्य युगल पहनाया। देवदूष्य पहनाकर पुष्पमाला, गंधचूर्ण एवं आभूषण चढ़ाए। तदनन्तर नीचे लटकती लम्बी-लम्बी गोल मालाएं पहनाईं। मालाएं पहनाकर पंचवर्ण के पुष्पों की वर्षा की, फिर जिनप्रतिमाओं के समक्ष विभिन्न चित्रांकन किए एवं श्वेत तन्दुलों से अष्टमंगल का आलेखन किया। उसके पश्चात् जिनप्रतिमाओं के समक्ष धूपक्षेप किया। धूपक्षेप करने के पश्चात् विशुद्ध, अपूर्व, अर्थसम्पन्न महिमाशाली 108 छन्दों से भगवान् की स्तुति की। स्तुति करके सात-आठ पैर पीछे हटा। पीछे हटकर बांया घुटना ऊंचा किया तथा दायां घुटना जमीन पर झुकाकर तीन बार मस्तक पृथ्वी तल पर नमाया। फिर मस्तक ऊंचा कर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके 'नमोत्थुणं अरहंताणं... ठाणं संपत्ताणं' नामक शक्रस्तव का
SR No.004423
Book TitlePrakrit Agam evam Jain Granth Sambandhit Aalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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