________________ जैन धर्म एवं दर्शन-80 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-76 विराहनाये' नामक पाठ बोला जाता है, जिसका तात्पर्य है- 'मैं चैत्यवन्दन के लिए जाने में हुई एकेन्द्रिय-जीवों की हिंसा का प्रायश्चित्त करता हूँ। दूसरी ओर, पूजा-विधानों में एवं होमों में पृथ्वी, वायु, अप, अग्नि और वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय-जीवों की हिंसा का विधान, एक आन्तरिकअसंगति तो है ही। सम्भवतः, हिन्दू धर्म के प्रभाव से ईसा की छठवीं-सातवीं शताब्दी तक जैन धर्म में पूजा-प्रतिष्ठा-सम्बन्धी अनेक कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था, यही कारण है कि आठवीं शती में हरिभद्र को. इनमें से अनेक का मुनियों के लिए निषेध करना पड़ा। हरिभद्र ने 'सम्बोधनप्रकरण' में चैत्यों में निवास, जिन-प्रतिमा की द्रव्य-पूजा, जिन-प्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, नाटक आदि का जैनमुनि के लिए निषेध किया है। मात्र इतना ही नहीं, उन्होंने उसी ग्रन्थ में द्रव्य-पूजा को अशुद्ध पूजा भी कहा है।' सामान्यतः जैन-परम्परा में तपप्रधान अनुष्ठानों का सम्बन्ध कर्ममल को दूर कर मनुष्य के आध्यात्मिक-गुणों का विकास और पाशविक-आवेगों का नियन्त्रण रहा है। जिन-भक्ति और जिन-पूजा-सम्बन्धी अनुष्ठानों का उद्देश्य भी लौकिक-उपलब्धियों एवं विघ्न-बाधाओं का उपशमन न होकर व्यक्ति का अपना आध्यात्मिक-विकास ही है। जैन-साधक स्पष्ट रूप से इस बात को दृष्टि में रखता है कि प्रभु की पूजा और स्तुति केवल भक्त के स्व-स्वरूप या निज गुणों की उपलब्धि के लिए है। जैन-परम्परा का उद्घोष है- 'वन्दे तद्गुण लब्धये', अर्थात् वन्दन का उद्देश्य परम्परा के गुणों की उपलब्धि है। जिनदेव की एवं हमारी आत्मा तत्वतः समान है, अतः वीतराग के गुणों की उपलब्धि का अर्थ हैस्वरूप की उपलब्धि / इस प्रकार, जैन–अनुष्ठान मूलतः आत्मविशुद्धि और स्वरूप की उपलब्धि के लिए हैं। जैन-अनुष्ठानों में जिन गाथाओं या मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उनमें भी अधिकांशतः तो पूजनीय के स्वरूप का ही बोध कराते हैं अथवा आत्म के लिए पतनकारी-प्रवृत्तियों का अनुस्मरण कराकर उनसे मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं। __ यद्यपि जैन-अनुष्ठानों की मूल प्रकृति अध्यात्मपरक है, किन्तु मनुष्य की यह एक स्वाभाविक कमजोरी है कि वह धर्म के माध्यम से भौतिकसुख-सुविधाओं की उपलब्धि चाहता है, साथ ही उनकी उपलब्धि में