________________ जैन धर्म एवं दर्शन-78 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-74 परम्पराओं में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में पूजा-विधि का विकास हुआ और श्रमण परम्परा में तपस्या और ध्यान का। समाज में यक्ष-पूजा के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध हैं। जनसाधारण में प्रचलित भक्तिमार्गी-धारा का प्रभाव जैन और बौद्ध-धर्मों पर भी पड़ा और उनमें तप, संयम एवं ध्यान के साथ-साथ जिन एवं बुद्ध की पूजा की भावना विकसित हुई। परिणामतः, प्रथम स्तूप, चैत्य आदि के रूप में प्रतीक-पूजा प्रारम्भ हुई, फिर सिद्धायतन (जिन-मन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिनप्रतिमा की पूजा होने लगी, परिणामस्वरूप, जिन-पूजा, दान आदि को गृहस्थ का मुख्य कर्त्तव्य माना गया। दिगम्बर-परम्परा में तो गृहस्थ के लिए प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर षट् दैनिक कृत्यों जिन-पूजा, गुरु-सेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान की कल्पना की गई। हमें 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', 'उत्तराध्ययन', 'भगवती' आदि प्राचीन आगमों में जिन-पूजा की विधि का इनकी अपेक्षा परवर्ती आगमों 'स्थानांग' आदि में जिन-प्रतिमा एवं जिन-मंदिर (सिद्धायतन) के उल्लेख हैं, किन्तु उनमें पूजा-सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है, जबकि 'राजप्रश्नीय' में सूर्याभदेव और 'ज्ञाताधर्मकथा' में द्रौपदी के द्वारा जिन-प्रतिमाओं के पूजन के उल्लेख हैं। यह सब बृहद् हिन्दू-परम्परा का जैन धर्म पर प्रभाव है। ___ 'हरिवंशपुराण' में जिनसेन ने जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवैद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं है और न जल का पृथक् निर्देश ही है। स्मरण रहे कि प्रतिमा-प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम विकास अभिषेक है, जो अपेक्षाकृत और भी परवर्ती 'पद्मपुराण', 'पंचविंशति' (पद्मनन्दिकृत), 'आदिपुराण', 'हरिवंशपुराण', 'वसुनन्दि श्रावकाचार' आदि ग्रन्थों से अष्टद्रव्यों का फलादेश भी ज्ञात होता है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने से ऐहिक और पारलौकिक-अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। 'भावसंग्रहट में भी अष्टद्रव्यों का पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है। ___डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा प्रस्तुत विवरण हिन्दू-परम्परा के प्रभाव से दिगम्बर-परम्परा में पूजा-द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट कर देता है।