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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-62 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-58 नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्रागैतिहासिक-काल के महान् तीर्थकरों को स्वीकार करके निर्ग्रन्थ-परम्परा ने अपने अस्तित्व को अति प्राचीनकालीन सिद्ध किया है। __वेदों एवं वैदिक-परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि वातरसना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में श्रमणधारा उस युग में भी जीवित थी, जिसके पूर्व-पुरुष ऋषभ थे, फिर भी आज ऐतिहासिक-आधार पर यह बात कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएँ क्या थीं और वे वर्तमान जैन–परम्परा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संन्यास मार्ग के आद्य-प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। प्राचीन जैन-ग्रन्थों में यह तो निर्विवाद रूप से मान लिया गया है कि ऋषभ भगवान् महावीर के समान पंच महाव्रत रूप धर्म के प्रस्तोता थे और उनकी आचार-व्यवस्था महावीर के अनुरुप ही थी। ऋषभ के उल्लेख ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक में उपलब्ध हैं। डॉ. राधाकृष्णन् ने, 'यजुर्वेद' में ऋषभ के अतिरिक्त अजित और अरिष्टनेमि के नामों की उपलब्धि की बात कही है। हिन्दू 'पुराणों' और 'भागवत' में ऋषभ का जो जीवन-चरित्र वर्णित है, वह जैन-परम्परा के अनुरूप है। बौद्ध-ग्रन्थ 'अंगुत्तरनिकाय' में पूर्वकाल के सात तीर्थंकरों का उल्लेख किया है, उसमें अरक' (अर) का भी उल्लेख है। इसी प्रकार, 'थेरगाथा' में अजित थेर का उल्लेख है, उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहा गया है, फिर भी मध्यवर्ती 22 तीर्थंकरों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक-साक्ष्य अधिक नहीं हैं, उनके प्रति हमारी आस्था का आधार जैन-आगम और जैन-कथा-ग्रन्थ ही हैं। महावीर और आजीवक परम्परा ___ जैनधर्म के पूर्व-इतिहास की इस संक्षिप्त रूपरेखा देने के पश्चात् जब हम पुनः महावीर के काल की ओर आते हैं, तो 'कल्पसूत्र' एवं 'भगवती' में कुछ ऐसे सूचना-सूत्र मिलते हैं, जिनके आधार पर ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर के पार्श्वपत्यों के अतिरिक्त आजीवकों के साथ भी सम्बन्धों की पुष्टि होती है।
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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