________________ जैन धर्म एवं दर्शन-44 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-40 सहवर्ती परम्पराओं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी शोध परिपूर्ण नहीं हो सकती है। धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होते, वे अपने देश, काल और सहवर्ती परम्पराओं से प्रभावित होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं। यदि हमें जैन, बौद्ध, वैदिक या अन्य किसी भी भारतीय-संस्कृति-धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् प्रकार से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशगत पक्षों को भी प्रामाणिकतापूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा। चाहे जैन-विद्या के शोध एवं अध्ययन का प्रश्न हों या अन्य किसी भारतीय-विद्या के, हमें उसकी दूसरी परम्पराओं को अवश्य ही जानना होगा और देखना होगा कि वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार प्रभावित हुई है और उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। पारस्परिक-प्रभाव के अध्ययन के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं होता है। ___ यह सत्य है कि भारतीय-संस्कृति के इतिहास के आदिकाल से ही हम उसमें श्रमण और वैदिक-संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ पाते हैं, किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में इन दोनों स्वतन्त्र धाराओं का संगम हो गया है और अब उन्हें एक-दूसरे से पूर्णतया अलग नहीं किया जा सकता। भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक-काल से ही ये दोनों धाराएँ परस्पर एक-दूसरे से प्रभावित होती रही हैं। अपनी-अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे उन्हें अलग-अलग देख लें, किन्तु व्यावहारिक-स्तर पर उन्हें एक-दूसरे से पृथक नहीं कर सकते। भारतीय-वाड़मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना जाता है। उसमें जहाँ एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक-क्रियाकाण्डों का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्य, श्रमणों एवं आर्हतों की उपस्थिति के उल्लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि, जो जैन परम्परा में तीर्थकर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर भाव भी व्यक्त किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक-युग के प्रारंभ से भी भारत में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित होती रहीं। हिन्दूधर्म की थैवधारा और सांख्य-योग परम्परा मूलतः निवर्तक या श्रमण रही है, जो कालक्रम में बृहद् हिन्दूधर्म में आत्मसात् कर ली गई है।