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________________ 'जैन धर्म एवं दर्शन-145 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-141 दार्शनिक-ग्रन्थों का भी संस्कृत भाषा में प्रणयन किया। उनके द्वारा रचित निम्न दार्शनिक-ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध है- षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवादप्रवेश, अनेकान्तप्रघट्ट आदि, साथ ही, इन्होंने बौद्ध-दार्शनिक दिड्.नाग के न्यायप्रवेश की संस्कृत-टीका भी लिखी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने 'योगदृष्टिसमुच्चय' आदि ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में लिखे। हरिभद्र के समकाल में या उनके कुछ पश्चात् दिगम्बर–परम्परा में आचार्य अकलंक और विद्यानन्दसूरि हुए, जिन्होंने अनेक दार्शनिक-ग्रन्थों की रचना की। जहाँ अकलंक ने तत्वार्थसूत्र पर राजवर्तिक' टीका के साथ-साथ न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, लधीयस्त्री, अष्टशती एवं प्रमाणसंग्रह आदि दार्शनिक ग्रन्थों की संस्कृत में रचना की। वही विद्यानन्द ने भी तत्वार्थसूत्र पर श्लोकवार्तिकटीका के साथ साथ आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, अष्टसहस्री आदि गम्भीर दार्शनिक-ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की। 10वीं शताब्दी के प्रारम्भ में सिद्धसेन के न्यायावतार पर श्वेताम्बराचार्य सिद्धऋषि ने विस्तृत टीका की रचना की। इसी काल में प्रभाचन्द, कुमुदचन्द्र एवं वादिराजसूरि नामक दिगम्बर-आचार्यों ने क्रमशः प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्र, न्यायविनिश्चय-टीका आदि महत्वपूर्ण दार्शनिक-ग्रन्थों की रचना की। इसके पश्चात् 11वीं शताब्दी में देवसेन ने लघुनयचक्र, बृहदनयचक्र, आलापपद्धति, माणिक्यनन्दी के परीक्षामुख तथा अनन्तवीर्य ने सिद्धिविनिश्चय टीका आदि दार्शनिक कृतियों का सृजन किया। इसी कालखण्ड मैं, श्वेताम्बर परम्परा के अभयदेव सूरि ने सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर वादमहार्णव नामक विशाल टीका ग्रन्थ की रचना की। इसी क्रम में दिगम्बर आचार्य अनन्तकीर्ति ने लघुसर्वज्ञसिद्धि, बृहद्सर्वज्ञसिद्धि, प्रमाणनिर्णय आदि दार्शनिक-ग्रन्थों की रचना की थी। इसी कालखण्ड में श्वेताम्बर-परम्परा में आचार्य वादिदेवसरि हए. उन्होंने प्रमाणनयतत्वालोक तथा उसी पर स्वोपज्ञ-टीका के रूप में स्यादवादरत्नाकर जैसे जैन-न्याय के ग्रन्थों का निर्माण किया। उनके शिष्य रत्नप्रभसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोक पर टीका के रूप में रत्नाकरावतारिका की रचना की थी। इन सभी में भारतीय-दर्शनों एवं उनके न्यायशास्त्र की अनेक मान्यताओं की समीक्षा भी है। 12वीं शताब्दी में हुए श्वेताम्बर आचार्य हेमचन्द्र ने मुख्य रूप से
SR No.004421
Book TitleJain Dharm evam Sahitya ka Sankshipta Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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