________________ जैन धर्म एवं दर्शन-11 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-7 धर्म का स्वरूप धर्म के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में पाई जाती है। धर्म क्या है ? इस प्रश्न के आजतक अनेक उत्तर दिए गए हैं, किंतु जैन आचार्यों ने जो उत्तर दिया है वह विलक्षण है तथा गम्भीर विवेचना की अपेक्षा करता है। वे कहते हैं - धम्मो वत्थुसहावो, खमादिभावो य दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो॥ वस्तु का स्वभाव धर्म है। क्षमा आदि भावों की अपेक्षा से वह दस प्रकार का है। रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र) भी धर्म है तथा जीवों की रक्षा करना भी धर्म है। सर्वप्रथम वस्तु स्वभाव को धर्म कहा गया है, आएं जरा इस पर गम्भीरता से विचार करें। सामान्यतया धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। हिन्दी भाषा में जब हम कहते हैं कि आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म शीतलता है तो यहां धर्म से हमारा तात्पर्य वस्तु के स्वाभाविक गुणों से होता है। किंतु जब यह कहा जाता है कि दुःखी एवं पीड़ितजनों की सेवा करना मनुष्य का धर्म है अथवा गुरु की आज्ञा का पालन शिष्य का धर्म है तो यहां धर्म का अर्थ होता है कर्तव्य या दायित्व। इसी प्रकार जब हम यह कहते हैं कि मेरा धर्म जैन है या उसका धर्म ईसाई है, तो हम एक तीसरी ही बात कहते हैं। यहां धर्म का मतलब है किसी दिव्य-सत्ता, सिद्धांत या साधना-पद्धति के प्रति हमारी श्रद्धा, आस्था या विश्वासा अक्सर हम धर्म से यही तीसरा अर्थ लेते हैं। जबकि यह तीसरा अर्थ धर्म का अभिरुढ़ अर्थ है, वास्तविक अर्थ नहीं है। सच्चा धर्म सिर्फ धर्म है, वह न हिन्दू होता है, न जैन, न बौद्ध, न ईसाई, न इस्लामा ये सब नाम आरोपित हैं। हमारा सच्चा धर्म तोवही है जो हमारा निज-स्वभाव है। इसीलिए जैन आचार्यों ने 'वत्थु सहावो धम्मो' के रूप में धर्म को पारिभाषित किया है। प्रत्येक के लिए जो उसका निज-गुण है, स्व-स्वभाव है, वही धर्म है, स्व-स्वभाव से भिन्न जो भी होगा, वह उसके लिए धर्म नहीं, अधर्म ही होगा। इसीलिए गीता में कहा गया है 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः पराधर्मो भयावहः'