________________ जैन धर्म एवं दर्शन-124 जैन धर्म एवं साहित्य का इतिहास-120 रहा था, किन्तु परवर्तीकाल में इस परम्परा में न्याय-संबंधी जो ग्रन्थ लिखे गए, वे संस्कृत भाषा में रहे। इसके विपरीत, जहाँ जैन-परम्परा के मूल-आगम प्राकृत भाषा में मिलते हैं, वहीं उनकी 8 वीं शती या उससे परवर्ती टीकाएँ और वृत्तियाँ संस्कृत में हैं। इसी प्रकार, प्राकृत के सभी व्याकरण भी संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं और उनका मूल उद्देश्य भी संस्कृत के विद्वानों को प्राकृत भाषा के स्वरूप को समझाकर प्राकृत-ग्रन्थों का अर्थबोध करना ही रहा है। इस सामान्य चर्चा को यहाँ समाप्त करते हुए मैं जैन-परम्परा के आचार्यों के द्वारा संस्कृत-साहित्य को जो अवदान दिया गया है, उसकी ही चर्चा करना चाहता हूँ। जहाँ तक जैन-परम्परा का प्रश्न है, उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बरदोनों शाखाओं में आगम-तुल्य ग्रन्थ मूलतः प्राकृत में लिखे गए और उनकी नियुक्ति और उन पर लिखे गए भाष्य भी प्राकृत में ही रहे, किन्तु आगम-साहित्य पर जो चूर्णियाँ और चूर्णि-सूत्र लिखे गए, वे प्राकृत और संस्कृत की मिश्रित भाषा में ही लिखे गए। चूर्णियों के पश्चात् आगम और आगम-तुल्य ग्रन्थों पर जो भी टीकाएँ या वृत्तियाँ लिखी गईं, अथवा दुर्गम पदों की व्याख्याएँ लिखी गईं, वे सभी संस्कृत में ही रहीं। आगम-ग्रन्थों पर संस्कृत में टीकाएँ और वृत्तियाँ लिखने वाले आचार्यों में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र का क्रम आता है, जो 8वीं शताब्दी में हुए। हरिभद्र के पश्चात् शीलांक (10वीं शताब्दी), अभयदेव (12वीं शताब्दी), मलधारी हेमचन्द्र (12वीं शताब्दी), मलयगिरि (13वीं शताब्दी), यशोविजय (18वीं शताब्दी) आदि आचार्यों ने प्रायः संस्कृत भाषा में टीकाएँ लिखने का कार्य किया, जिसका प्रारम्भ 8वीं शताब्दी से माना जाता है किन्तु जैन आचार्यों ने संस्कृत में ग्रन्थ लिखने का कार्य उससे 500 वर्ष पूर्व ही प्रारम्भ कर दिया था। जैन-परम्परा में लगभग ईसा की 3री शताब्दी में आचार्य उमास्वाति ने सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य की रचना की थी। इसके अतिरिक्त, उमास्वाति की प्रशमरति आदि कुछ अन्य कृतियाँ भी संस्कृत भाषा में लिखी गईं। इसमें प्रशमरति-प्रकरण और पूजा-प्रकरण प्रमुख हैं। यद्यपि पूजा-प्रकरण का लेखन उमास्वाति ने ही किया था या किसी अन्य ने, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं।