________________ जैन धर्म एवं दर्शन-151 जैन-तत्त्वमीमांसा-3 सातवीं शती तक काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करने के संबंध में मतभेद था। कुछ जैन-दार्शनिक काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानते थे और कुछ उसे स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानकर जीव एवं पुदगल की पर्यायरूप ही मानते थे, किन्तु बाद में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर- दोनों परम्पराओं में अस्तिकाय और द्रव्य की अवधारणाओं का समन्वय करते हुए काल को अनस्तिकाय द्रव्य के रूप में स्वतन्त्र द्रव्य स्वीकार कर लिया गया। इस प्रकार, पंचास्तिकाय में काल को जोड़ने पर जैनदर्शन में षद्रव्य की अवधारणा विकसित हुई। अस्तिकाय की अवधारणा जैनों की मौलिक अवधारणा है। किसी अन्य दर्शन में इसकी उपस्थिति के संकेत नहीं मिलते। मेरी दृष्टि में प्राचीन काल में अस्तिकाय का तात्पर्य मात्र अस्तित्व रखने वाली सत्ता था, किन्तु आगे चलकर जब अस्तिकाय और अनस्तिकाय- ऐसे दो प्रकार के द्रव्य माने गये, तो अस्तिकाय का तात्पर्य आकाश में विस्तारयुक्त द्रव्य से माना गया। पारम्परिक भाषा में अस्तिकाय को बहु-प्रदेशी द्रव्य भी कहा गया है, जिसका तात्पर्य यही है कि जो द्रव्य आकाश-क्षेत्र में विस्तारित है, वही 'अस्तिकाय' है। पंचास्तिकाय - जैसा कि जैनदर्शन में वर्तमान काल में जो षद्रव्य की अवधारणा है, उसका विकास इसी पंचास्तिकाय की अवधारणा से ही हुआ है। पंचास्तिकायों में काल को जोड़कर लगभग ईसा की प्रथम द्वितीय शती में षद्रव्यों की अवधारणा निर्मित हुई है। जहाँ तक पंचास्तिकाय की अवधारणा का प्रश्न है, वह निश्चित ही प्राचीन है, क्योंकि उसका .प्राचीनतम उल्लेख हमें 'इसिभासियाई' के पार्श्व नामक अध्ययन में मिलता है। ऋषिभाषित की प्राचीनता निर्विवाद है। पं. दलसुखभाई के इस कथन में कि ‘पंचास्तिकाय की अवधारणा परवर्ती काल में बनी है- इतना ही सत्यांश है कि महावीर की परम्परा में आचारांग और सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के रचनाकारक तक इस अवधारणा का उल्लेख नहीं मिलता है, क्योंकि मूल में यह अवधारणा पार्खापत्यों की थी। जब पार्श्व के अनुयायियों ... को महावीर के संघ में समाहित कर लिया गया, तो उसके साथ ही पार्श्व