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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-222 जैन-तत्त्वमीमांसा-74 चेतन (आत्मा) भौतिक-तत्त्वों से व्यतिरिक्त और ज्ञानस्वरूप है। .. आक्षेप एवं निराकरण सामान्य रूप से जैन विचारणा में आत्मा या जीव को अपौद्गलिक, विशुद्ध चैतन्य एवं जड़ से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य माना जाता है, लेकिन अन्य दार्शनिकों का आक्षेप है कि जैन-दर्शन के विचार में जीव का स्वरूप बहुत कुछ पौद्गलिक बन गया है। यह आक्षेप अजैन-दार्शनिकों का ही नहीं, अनेक जैन- चिन्तकों का भी है और उनके लिए आगमिकं आधारों पर कुछ तर्क भी प्रस्तुत किये गये हैं। पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने इस विषय में एक प्रश्नावली भी प्रस्तुत की थी (अनेकांत, जून 1942) / यहाँ उस प्रश्नावली. के कुछ प्रमुख मुद्दों पर ही चर्चा करना अपेक्षित है, जो जीव-सम्बन्धी जैन दार्शनिक-मान्यताओं में ही पारस्परिक-अन्तर्विरोध प्रकट करते हैं___(1) जीव यदि पौद्गलिक नहीं है, तो उसमें सौक्ष्म्य-स्थौल्य अथवा संकोच-विस्तार की क्रिया और प्रदेश-परिस्पन्दन कैसे बन सकता है? जैन- विचारणा के अनुसार तो सौक्ष्म्य-स्थौल्य को पुद्गल की पर्याय : माना गया है। (2) जीव के अपौद्गलिक होने पर आत्मा में पदार्थों का प्रतिबिम्बित होना भी कैसे बन सकता है? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक पुद्गल ही होता है। जैन- विचारणा में ज्ञान की उत्पत्ति पदार्थों के आत्मा में प्रतिबिम्बित होने से ही मानी गयी है। . (3) अपौद्गलिक और अमूर्तिक-आत्मा पौद्गलिक एवं मूर्त्तिक-कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे सम्भव हो सकता है? (इस प्रकार के बन्ध का कोई दृष्टान्त भी उपलब्ध नहीं है) स्वर्ण और पाषाण के अनादिबन्ध का जो दृष्टान्त भी दिया जाता है, वह विषम दृष्टान्त है और एक प्रकार से तो वह जीव का पौदगलिक होना ही सूचित करता है। (4) रागादिक को पौद्गलिक कहा गया है और रागादिक जीव के परिणाम हैं- बिना जीव के उनका अस्तित्व नहीं। (यदि जीव पौद्गलिक नहीं है, तो रागादि भाव पौद्गलिक कैसे सिद्ध हो सकेंगे?) इसके सिवाय
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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