________________ जैन धर्म एवं दर्शन-175 जैन-तत्त्वमीमांसा-27 है और अमूर्त का नहीं। आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अमूर्त-द्रव्य का भी विस्तार होता है। वस्तुतः, अमूर्त-द्रव्य के विस्तार की कल्पना उसके लक्षणों या कार्यों (Functions) के आधार पर की जा सकती है, जैसे धर्म-द्रव्य का कार्य गति को सम्भव बनाना है, वह गति का माध्यम माना गया है, अतः जहाँ-जहाँ गति है या गति सम्भव है, वहाँ-वहाँ धर्म-द्रव्य की उपस्थिति एवं विस्तार है, यह माना जा सकता है। इस प्रकार, हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि किसी द्रव्य को अस्तिकाय कहने का तात्पर्य यह है कि वह द्रव्य दिक् में प्रसारित है, या प्रसारण की क्षमता से युक्त है। विस्तार या प्रसार (मगजमदेपवद) ही कायत्व है, क्योंकि विस्तार या प्रसार की उपस्थिति में ही प्रदेश प्रचयत्व तथा सावयवता की सिद्धि होती है, अतः जिन द्रव्यों में अस्तित्व के साथ-साथ विस्तार या प्रसार का लक्षण है, वे अस्तिकाय हैं। अब एक प्रश्न यह शेष रहता है कि काल को अस्तिकाय क्यों नहीं माना जा सकता? यद्यपि अनादि भूत से लेकर अनन्त भविष्य तक काल के विस्तार का अनुभव किया जा सकता है, किन्तु फिर भी उसमें कायत्व का आरोपण संभव नहीं है, क्योंकि काल का प्रत्येक घटक अपनी स्वतंत्र और पृथक् सत्ता रखता है। जैनदर्शन की पारम्परिक-परिभाषा में कालाणुओं में स्निग्ध एवं रूक्ष-गुण का अभाव होने से उनका कोई स्कन्ध या संघात नहीं बन सकता है। यदि उनके स्कन्ध की परिकल्पना भी कर ली जाय, तो पर्याय-समय की सिद्धि नहीं होती है। पुनः, काल के वर्तना लक्षण की सिद्धि केवल वर्तमान में ही है और वर्तमान अत्यन्त सूक्ष्म है, अतः काल में विस्तार (प्रदेश-प्रचयत्व) नहीं माना जा सकता और इसलिए वह अस्तिकाय भी नहीं है। प्रारंभ से ही ये अस्तिकाय पाँच माने गये हैं- 1. धर्म, 2. अधर्म, 3 जीव, 4. पुद्गल और 5. आकाश। इन पांचों की विस्तृत चर्चा षद्रव्यों के प्रसंग में की गई है / अस्तिकायों के प्रदेश-प्रचयत्व का अल्पबहुत्व ज्ञातव्य है कि सभी अस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार-क्षेत्र समान नहीं है, उनमें भिन्नताएँ हैं। जहाँ आकाश का विस्तार क्षेत्र लोक और अलोक-दोनों हैं, वहाँ धर्म-द्रव्य और अधर्म-द्रव्य केवल लोक तक ही सीमित हैं।