________________ जैन धर्म एवं दर्शन-173 जैन- तत्त्वमीमांसा-25 अस्तिकाय का तात्पर्य ___ सर्वप्रथम तो हमारे सामने मूल प्रश्न यह है कि अस्तिकाय की इस अवधारणा का तात्पर्य क्या है? व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'अस्तिकाय' दो शब्दों के मेल से बना है- अस्ति+काय / 'अस्ति' का अर्थ है- सत्ता या अस्तित्व और 'काय' का अर्थ है- शरीर, अर्थात् जो शरीर-रूप से अस्तित्ववान् है, वह अस्तिकाय है, किन्तु यहाँ 'काय' (शरीर) शब्द भौतिक शरीर के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है, जैसा कि जन-साधारण समझता है, क्योंकि पंच-अस्तिकायों में पुद्गल को छोड़कर शेष चार तो अमूर्त हैं, अतः वे अस्तिकाय हैं। परमाणु आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं, किन्तु परमाणु जुड़कर स्कन्ध बनाते हैं। परमाणु और स्कन्ध पुद्गल के ही रूप हैं, फिर भी उनका आकाश में विस्तार है, अतः पुद्गल को भी अस्तिकाय माना जा सकता है। - वस्तुतः, इस प्रसंग में कायत्व का अर्थ विस्तारयुक्त होना ही है। जो द्रव्य विस्तारवान् हैं, वे अस्तिकाय हैं और जो विस्ताररहित हैं, वे अनस्तिकाय हैं। विस्तार की यह अवधारणा क्षेत्र की अवधारणा पर आश्रित है। वस्तुतः, कायत्व के अर्थ के स्पष्टीकरण में सावयवत्व एवं सप्रदेशत्व की जो अवधारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं, वे सभी क्षेत्र के अवगाहन की संकल्पना से सम्बन्धित हैं। विस्तार का तात्पर्य है- क्षेत्र का अवगाहन / जो द्रव्य जितने क्षेत्र का अवगाहन करता है, वही उसका विस्तार या प्रदेश-प्रचयत्व या कायत्व है। विस्तार या प्रचय दो प्रकार का माना गया है- ऊर्ध्व-प्रचय और तिर्यक्-प्रचय / आधुनिक शब्दावली में इन्हें क्रमशः' ऊर्ध्व-एकरेखीय विस्तार (Longitudinal Extension) और बहुआयामी विस्तार (Multidimensional Extension) कहा जा सकता है। अस्तिकाय की अवधारणा में प्रचय या विस्तार को जिस अर्थ में ग्रहण किया जाता है, वह बहुआयामी विस्तार है, न कि ऊर्ध्व-एकरेखीय विस्तार | जैन-दार्शनिकों ने केवल उन्हीं द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है, जिनका तिर्यक्-प्रचय या बहुआयामी विस्तार है। काल में केवल ऊर्ध्व-प्रचय या एक-आयामी विस्तार है, अतः उसे अस्तिकाय नहीं माना गया है। यद्यपि प्रो. जी.आर. जैन ने काल को