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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-156 जैन-तत्त्वमीमांसा-8 उसमें जिन्हें अस्ति कहना चाहिए, उनका निर्देश भी है। उसके अनुसार, जिन तत्त्वों को अस्ति कहना चाहिए, वे निम्न हैं- लोक, अलोक, जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अक्रिया, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, चतुरंत संसार, देव, देवी, सिद्धि, असिद्धि, सिद्धनिजस्थान, साधु, असाधु, कल्याण और पाप। . इस विस्तृत सूची का निर्देश सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के द्वितीय अध्ययन में हुआ है, जहाँ जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, वेदना-निर्जरा, क्रिया-अधिकरण, बंध और मोक्ष का उल्लेख है। पं. . दलसुखभाई मालवणिया का मानना है कि इनमें से वेदना, क्रिया और अधिकरण को निकालकर ही आगे नौ तत्त्वों की अवधारणा बनी होगी, जिसका निर्देश हमें समवायांग (9) और उत्तराध्ययन (27/14) में मिलता है। उन्हीं नौ तत्त्वों में से आगे चलकर ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी में . उमास्वाति ने पुण्य और पाप को आस्रव के अन्तर्गत वर्गीकृत करके सात तत्त्वों की अवधारणा प्रस्तुत की। इन सात अथवा नौ तत्त्वों की चर्चा हमें परवर्ती सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों के ग्रन्थों में मिलती है। इससे यह स्पष्ट है कि जैनों में सात तत्त्वों की अवधारणा भी पंच-अस्तिकाय की अवधारणा से ही एक कालक्रम में विकसित होकर लगभग ईसा की तीसरी-चतुर्थ शती में अस्तित्व में आयी है। सातवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य जो मुख्य काम इन अवधारणाओं के संदर्भ में हुआ, वह यह कि उन्हें सम्यक् प्रकार से व्याख्यायित किया गया और उनके भेद-प्रभेद की विस्तृत चर्चा की गयी। षट्जीवनिकाय की अवधारणा पंचास्तिकाय के साथ-साथ षट्जीवनिकाय की चर्चा भी जैन-ग्रंथों में उपलब्ध है। ज्ञातव्य है कि पंचास्तिकाय में जीवास्तिकाय के विभाग के रूप में षट्जीवनिकाय की यह अवधारणा विकसित हुई है। षट्जीवनिकाय निम्न हैं- पृथ्वीकाय, अपकाय, वायुकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। पृथ्वी आदि के लिए 'काय' शब्द का प्रयोग प्राचीन है। दीर्घनिकाय में अजितकेशकम्बलिन् के मत को प्रस्तुत करते हुए- पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय और वायुकाय का उल्लेख हुआ है। उसी ग्रंथ में
SR No.004420
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages152
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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