________________ जैन धर्म एवं दर्शन-276 जैन - तत्त्वमीमांसा -128 क्रिया, (ब) सम्यक्दृष्टि- प्रमत्त जीव की क्रिया, (स) सम्यक्दृष्टिअप्रमत्त साधक की क्रिया। इन्हें क्रमश: अविरत- कायिकी, दुष्प्रणिहितकायिकी और उपरत-कायिकी-क्रिया कहा जाता है। अधिकरणिका-क्रिया- घातक अस्त्र-शस्त्र आदि के द्वारा सम्पन्न की जाने वाली हिंसादि की क्रिया। इसे प्रयोग-क्रिया भी कहते हैं। प्राद्वेषिकी-क्रिया- द्वेष, मात्सर्य, ईर्ष्या आदि से युक्त होकर की जाने वाली क्रिया। पारितापनिकी- ताडना, तर्जना आदि के द्वारा दुःख देना। यह दो प्रकार की है- 1. स्वयं को कष्ट देना और 2. दूसरे को कष्ट देना। जो विचारक जैन-दर्शन को कायाक्लेश का समर्थक मानते हैं, उन्हें यहाँ एक बार पुन: विचार करना चाहिए। यदि उसका मन्तव्य कायाक्लेश का होता, तो जैन-दर्शन स्व-पारितापनिकी-क्रिया को पाप के आगमन का कारण नहीं मानता। 5. प्राणातिपातकी-क्रिया- हिंसा करना। इसके भी दो भेद हैं- 1. स्वप्राणाति-पातकी-कि या, अर्थात् राग-द्वेष एवं कष वां के वशीभूत होकर आत्म के स्वस्वभाव का घात करना तथा 2. परप्राणातिपातकी क्रिया, अर्थात् कषायवश दूसरे प्राणियों की हिंसा करना। 6. आरम्भ-क्रिया- जड एवं चेतन वस्तुओं का विनाश करना। 7. पारिग्राहिकी-क्रिया- जड पदार्थों एवं चेतन प्राणियों का संग्रह करना। 8. माया-क्रिया- कपट करना। 9. राग-क्रिया- आसक्ति करना। यह क्रिया मानसिक-प्रकृति की है, इसे प्रेम प्रत्ययिकी-क्रिया भी कहते हैं। 10. द्वेष-क्रिया- द्वेष-वृत्ति से कार्य करना। 11. अप्रत्यायान-क्रिया- असंयम या अविरति की दशा में होने वाला कर्म अप्रत्यायान-क्रिया है। 12. मिथ्यादर्शन-क्रिया- मिथ्यादृष्टित्व से युक्त होना एवं उसके अनुसार क्रिया करना। 13. दृष्टिजा-क्रिया- देखने की कि या एवं तजनित राग-द्वेषादिभावरूप क्रिया।