________________ जैन धर्म एवं दर्शन-273 जैन - तत्त्वमीमांसा -125 जाता था। उसके चारों ओर के समुद्र को घेरे हुए उत्तरी अमेरिका व दक्षिणी अमेरिका की स्थिति आती है। यदि हम पृथ्वी को सपाट मानकरः इस अवधारणा पर विचार करें, तो उत्तर-दक्षिण अमेरिका मिलकर इस जम्बूद्वीप को वलयाकार रूप में घेरे हुए प्रतीत होते हैं। इस प्रकार, मोटे रूप में अढ़ाई द्वीप की जो कल्पना है, यह सिद्ध तो हो जाती है, फिर भी जैनों ने जम्बूद्वीप आदि में जो ऐरावत, महाविदेह क्षेत्रों आदि की कल्पना की है, वह आधुनिक भूगोल से अधिक संगत नहीं बैठती है। वास्तविकता यह है कि प्राचीन भूगोल, जो जैन, बौद्ध व हिन्दुओं में लगभग समान रहा है, उसकी सामान्य निरीक्षणों के आधार पर ही कल्पना की गई थी, फिर भी उसे पूर्णतः असत्य नहीं कहा जा सकता। आज हमें यह सिद्ध करना है कि विज्ञान धार्मिक आस्थाओं का संहारक नहीं, पोषक भी हो सकता है। आज यह दायित्व उन वैज्ञानिकों का एवं उन धार्मिकों का है, जो विज्ञान व धर्म को परस्पर विरोधी मान बैठे हैं, उन्हें यह दिखाना होगा कि विज्ञान व धर्म एक-दूसरे के संहारक नहीं, अपितु पोषक हैं। यह सत्य है कि धर्म और दर्शन के क्षेत्र में कुछ ऐसी अवधारणाएं हैं, जो वैज्ञानिक-ज्ञान के कारण ध्वस्त हो चुकी हैं, लेकिन इस संबंध में हमें चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है। प्रथम तो हमें यह निश्चित करना होगा कि धर्म का संबंध केवल मानवीय जीवन-मूल्यों से है, खगोल के वे तथ्य, जो आज वैज्ञानिक-अवधारणा के विराध में हैं, उनका धर्म व दर्शन से कोई सीधा संबंध नहीं है, अतः उनके अवैज्ञानिक सिद्ध होने पर भी धर्म अवैज्ञानिक सिद्ध नहीं होता। हमें यह ध्यान रखना होगा कि धर्म के नाम पर जो अनेक मान्यताएं आरोपित कर दी गयी हैं, वे सब धर्म का अनिवार्य अंग नहीं हैं। अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो केवल लोक-व्यवहार के कारण धर्म से जुड़ गये हैं। . आज उनके यथार्थ स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। भरतक्षेत्र कितना लंबा-चौड़ा है? मेरु-पर्वत की ऊँचाई क्या है ? उनके ऊपर कौन है? आदि। ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिनका धर्म व साधना से कोई संबंध नहीं है। हम देखते हैं कि न केवल जैन-परंपरा में, अपितु बौद्ध व ब्राह्मण-परम्परा में भी ये मान्यताएं समान रूप से प्रचलित रही हैं। एक H गय हा