________________ जैन धर्म एवं दर्शन-259 जैन - तत्त्वमीमांसा-111 स्पष्ट होता है कि प्राचीन धार्मिक कहे जाने वाले साहित्य में भी बहुत कुछ ऐसा है, जो या तो आज विज्ञानसम्मत सिद्ध हो चुका है, अथवा जिसके विज्ञानसम्मत सिद्ध होने की सम्भावना अभी पूर्णतः निरस्त नहीं हुई है। अनेक आगम-वचन या सूत्र ऐसे हैं, जो कल तक अवैज्ञानिक प्रतीत होते थे, वे आज वैज्ञानिक प्रतीत हो रहे हैं। मात्र इतना ही नहीं, इन सूत्रों की जो वैज्ञानिक- व्याख्या की गयी, वह अधिक समीचीन प्रतीत होती है। (उदाहरण के रूप में- परमाणुओं के पारस्परिक-बन्धन से स्कन्ध के निर्माण की प्रक्रिया को समझाने हेतु तत्त्वार्थसूत्र के पाँचवें अE य का एक सूत्र आता है- स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः / इसमें स्निग्ध और रूक्ष परमाणुओं के एक-दूसरे से जुड़कर स्कन्ध बनाने की बात कही गयी है। सामान्य रूप से इसकी व्याख्या यह कहकर ही की जाती थी कि स्निग्ध T (चिकने) एवं रूक्ष (खुरदुरे) परमाणु में बन्ध होता है, किन्तु आज जब हम इस सूत्र की वैज्ञानिक-व्याख्या करते हैं कि स्निग्ध अर्थात् धनात्मक-विद्युत् से आवेशित एवं रूक्ष अर्थात ऋणात्मक-विद्युत् से आवेशित सूक्ष्म-कण, जैन-दर्शन की भाषा में परमाणु, परस्पर मिलकर स्कन्ध का निर्माण करते हैं, तो तत्त्वार्थसूत्र का यह सूत्र अधिक विज्ञानसम्मत प्रतीत होता है। इसी प्रकार, आचारांगसूत्र में वानस्पतिक जीवन की प्राणीय-जीवन से जो तुलना की गई है, वह आज अधिक विज्ञानसम्मत सिद्ध हो रही है। आचारांग का यह कथन है कि वानस्पतिक-जगत् में उसी प्रकार की संवेदनशीलता है, जैसी प्राणी-जगत् में इस तथ्य को सामान्यतया पाश्चात्य वैज्ञानिकों की आधुनिक खोजों के पूर्व सत्य नहीं माना जाता था, किन्तु सर जगदीशचन्द्र बसु और अन्य जैव-वैज्ञानिकों ने अब इस तथ्य की पुष्टि कर दी है कि वनस्पति में भी प्राणी-जगत् की तरह ही संवेदनशीलता है, अतः आज आचारांग का कथन विज्ञानसम्मत सिद्ध होता है। ___ हमें यह बात ध्यान में रखना है कि न तो विज्ञान धर्म का शत्रु है और न धार्मिक- आस्थाओं को खण्डित करना ही उसका उद्देश्य है, यह जिसे खण्डित करता है, वे हमारे तथाकथित धार्मिक-अन्धविश्वास होते हैं, साथ ही हमें यह भी समझना चाहिये कि वैज्ञानिक-खोजों के परिणामस्वरूप अनेक धार्मिक-अवधारणाएं पुष्ट ही हुई हैं। अनेक धार्मिक आचार-नियम, .