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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-467 जैन ज्ञानमीमांसा -175 गया कि उसने सामाजिक-आर्थिक-कल्याण की पूर्णतः उपेक्षा कर दी। परिणामस्वरूप, अमीर और गरीब के बीच खाईं अधिक गहरी होती गयी। ___ इसी प्रकार, अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आर्थिक-प्रगति का आधार व्यक्ति की इच्छाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को बढ़ाना मान लिया गया, किन्तु इसका परिणाम यह हुआ कि अर्थशास्त्र के क्षेत्र में स्वार्थपरता और शोषण की दृष्टि ही प्रमुख हो गयी। आवश्यकताओं की सृष्टि और इच्छाओं की पूर्ति को ही आर्थिक-प्रगति का प्रेरक-तत्त्व मानकर हमने आर्थिक-साधन और सुविधाओं में वृद्धि की, किन्तु उसके परिणामस्वरूप आज मानव-जाति उपभोक्तावादी-संस्कृति से ग्रसित हो गयी है और इच्छाओं और आकांक्षाओं की दृष्टि के साथं चाहे भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन बढ़े भी हों, किन्तु उसने मनुष्य की अन्तरात्मा को विपन्न बना दिया। आकांक्षाओं की पूर्ति की दौड़ में मानव अपनी आन्तरिक-शान्ति खो बैठा, फलतः, आज हमारा आर्थिक क्षेत्र विफल होता दिखाई दे रहा है। वस्तुतः, इस सबके पीछे आर्थिक-प्रगति को ही एकमात्र लक्ष्य बना. लेने की एकान्तिक-जीवनदृष्टि है। - कोई भी तंत्र, चाहे वह अर्थतंत्र हो, राजतंत्र या धर्मतंत्र, बिना अनेकान्त-दृष्टि को स्वीकार किये सफल नहीं हो सकता, क्योंकि इन सबका मूल केन्द्र तो मनुष्य ही है। जब तक वे मानव-व्यक्तित्व की बहुआयामिता और उसमें निहित सामान्यताओं को नहीं स्वीकार करेंगे, तब तक इन क्षेत्रों में हमारी सफलताएं भी अन्ततः विफलताओं में ही बदलती रहेंगी। वस्तुतः, अनेकान्त-दृष्टि ही एक ऐसी दृष्टि है, जो मानव के समग्र कल्याण की दिशा में हमें अग्रसर कर सकती है। समग्रता की दिशा में अंगों की उपेक्षा नहीं, अपितु उनका पारस्परिक-सामंजस्य ही महत्वपूर्ण होता है और अनेकांन्तवाद का यह सिद्धान्त इसी व्यावहारिक जीवनदृष्टि को समुपस्थित करता है। अनेकान्त को जीने की आवश्यकता ___ मुझे यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि अनेकान्त के व्यावहारिक-पक्ष पर श्री नवीन भाई शाह की हार्दिक इच्छा, प्रेरणा और अर्थ-सहयोग से
SR No.004419
Book TitleJain Gyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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