________________ जैन धर्म एवं दर्शन-457 जैन ज्ञानमीमांसा-165 वैचारिक-आसक्ति. या राग का ही रूप है, तो दूसरी ओर, साधना के सामाजिक-पहलू की दृष्टि से वह वैचारिक-हिंसा है। वैचारिक-आसक्ति और वैचारिक-हिंसा से मुक्ति के लिए धार्मिक क्षेत्र में अनाग्रह और अनेकान्त की साधना अपेक्षित है। वस्तुतः, धर्म का आविर्भाव मानव-जाति में शांति और सहयोग के विस्तार के लिए हुआ था। धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था, लेकिन आज वही धर्म मनुष्य-मनुष्य में विभेद की दीवारें खींच रहा है। धार्मिक-मतान्धता में हिंसा, संघर्ष, छल, छद्म, अन्याय, अत्याचार- क्या नहीं हो रहा है? क्या वस्तुतः इसका कारण धर्म हो सकता है? इसका उत्तर निश्चित रूप से 'हाँ' में नहीं दिया जा सकता। यथार्थ में धर्म नहीं, किन्तु धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्त्वाकांक्षा, उसका अहंकार ही यह सब करवाता रहा है। यह धर्म नहीं, धर्म का नकाब डाले अधर्म है। मूल प्रश्न यह है कि क्या धर्म अनेक हैं या हो सकते हैं? इस प्रश्न का उत्तर अनैकांतिक-शैली से यह होगा कि धर्म एक भी है और अनेक भी। साध्यात्मक-धर्म या धर्मों का साध्य एक है, जबकि साधनात्मक-धर्म अनेक हैं। साध्य-रूप में धर्मों की एकता और साधन- रूप से अनेकता को ही यथार्थ दृष्टिकोण कहा जा.सकता है। सभी धर्मों का साध्य हैसमत्वलाभ (समाधि) अर्थात् आन्तरिक तथा बाह्य-शान्ति की स्थापना तथा उसके लिए विक्षोभ के जनक राग-द्वेष और अस्मिता (अहंकार) का निराकरण, लेकिन राग-द्वेष और अस्मिता के निराकरण के उपाय क्या हों? यहीं विचार-भेद प्रारम्भ होता है, लेकिन यह विचार-भेद विरोध का आधार नहीं बन सकता। एक ही साध्य की ओर उन्मुख होने से वे परस्पर विरोधी नहीं कहे जा सकते। एक ही केन्द्र से योजित होने वाली परिधि से खिंची हुई विभिन्न रेखाओं में पारस्परिक विरोध प्रतीत अवश्य होता है, किन्तु वह यथार्थ में होता नहीं, क्योंकि केन्द्र से संयुक्त प्रत्येक रेखा में एक-दूसरे को काटने की क्षमता नहीं होती है, किन्तु जैसे ही वह केन्द्र का परित्याग करती है, वह दूसरी रेखाओं को अवश्य ही काटती है। साध्य सभी एकता में साधनरूपी धर्मों की अनेकता स्थित है। अतः, यदि धर्मों का साध्य एक है, तो उनमें विरोध कैसा? अनेकान्त, धर्मों की साध्यपरक