________________ जैन धर्म एवं दर्शन-442 जैन ज्ञानमीमांसा-150 उल्लेख किया है, किन्तु जैन-विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावऐसी चार अपेक्षाएं मानी हैं, उसमें भी भाव–अपेक्षा व्यापक है, उसमें वस्तु की अवस्थाओं (पर्यायों) एवं गुणों-दोनों पर विचार किया जाता है, किन्तुं यदि हम प्रत्येक अपेक्षा की संभावनाओं पर विचार करें, तो ये अपेक्षाएं भी अनन्त होंगी, क्योंकि वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है। अपेक्षाओं की इन विविध सम्भावनाओं पर विस्तार से विचार किया जा सकता है, किन्तु इस छोटी-सी भूमिका में यह सम्भव नहीं है। इस सप्तभंगी का प्रथम भंग ‘स्यात् अस्ति' है। यह स्वचतुष्टय को अपेक्षा से वस्तु के भावात्मक-धर्म या धर्मों का विधान करता है, जैसेअपने द्रव्य की अपेक्षा से यह घड़ा मिट्टी का है, क्षेत्र की अपेक्षा से इन्दौर नगर में बना हुआ है, काल की अपेक्षा से शिशिर ऋतु का बना हुआ है, भाव अर्थात् वर्तमान पर्याय की अपेक्षा से लाल रंग का है या घटाकार है आदि / इस प्रकार, वस्तु के स्व-द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से उसके भावात्मक-गुणों का विधान करना- यह प्रथम 'अस्ति' नामक भंग का कार्य है। दूसरा स्यात्, ‘नास्ति' नामक भंग वस्तुतत्त्व के अभावात्मक-धर्म या धर्मों की अनुपस्थिति या नास्तित्व की सूचना देता है। वह यह बताता है कि वस्तु में स्व से भिन्न पर- चतुष्टय का अभाव है, जैसे- यह घड़ा ताम्बे का नहीं है, भोपाल नगर में बना हुआ नहीं है, ग्रीष्म ऋतु का बना हुआ नहीं है, कृष्ण वर्ण का नहीं है आदि। मात्र इतना ही नहीं, यह भंग इस बात को भी स्पष्ट करता है कि यह घड़ा ही है, वहाँ दूसरा भंग यह बताता है कि घड़ा, घट इतर अन्य कुछ नहीं है। कहा गया है- 'सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च', अर्थात्, सभी वस्तुओं की सत्ता स्वरूप से है, पर स्वरूप से नहीं। यदि वस्तु में अन्य वस्तुओं के गुण-धर्मों की सत्ता भी मान ली जायेगी, तो फिर वस्तुओं का पारस्परिक-भेद ही समाप्त हो जायेगा और वस्तु का स्व-स्वरूप ही नहीं रह जायेगा, अतः वस्तु में पर-चतुष्टय का निषेध करना द्वितीय भंग है। प्रथम भंग बताता है कि वस्तु क्या है, जबकि दूसरा भंग यह बताता कि वस्तु क्या नहीं है। सामान्यतया, इस द्वितीय भंग को ‘स्यात् नास्ति घटः', अर्थात्, किसी अपेक्षा से घड़ा नहीं है- इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु इसके