________________ जैन धर्म एवं दर्शन-436 जैन ज्ञानमीमांसा-144 अर्थ हो सकते हैं, दूसरे, अनेक बार शब्दों का प्रयोग उनके प्रचलित अर्थ में न होकर विशिष्ट अर्थ में होता है, जैसे- जैन-परम्परा में धर्म शब्द का प्रयोग धर्म-द्रव्य के रूप में भी होता है। जैन-आचार्यों ने स्यात् शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट पारिभाषिक अर्थ में ही किया है। यदि स्याद्वाद के आलोचक विद्वानों ने स्याद्वाद सम्बन्धी किसी भी मूल ग्रन्थ को देखने की कोशिश की होती, तो उन्हें स्यात् शब्द का जैन-परम्परा में क्या अर्थ हैयह स्पष्ट हो जाता। स्यात् शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में. जो भ्रान्ति उत्पन्न होती है, उसका मूल कारण उसे तिडन्त पद मान लेना है, जबकि समन्तभद्र, विद्यानन्दि, अमृतचन्द, मल्लिषेण आदि सभी जैन-आचार्यों ने इसे निपात या अव्यय माना है। समन्तभद्र स्यात् शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसा में लिखते हैं कि स्यात्- यह निपात शब्द है, जो अर्थ के साथ संबंधित होने पर वाक्य में अनेकान्तता का द्योतक और विवक्षित अर्थ का एक विशेषण है (आप्तमीमांसा-103)। इसी प्रकार, पंचास्तिकाय की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र भी स्यात् शब्द के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि 'स्यात्' एकान्तता का निषेधक, अनेकान्तता का प्रतिपादक तथा कथंचित् अर्थ का द्योतक एक निपात शब्द है (पंचास्तिकाय टीका)। __मल्लिषेण ने भी स्याद्वादमंजरी में स्यात् शब्द को अनेकान्तता का द्योतक एक अव्यय माना है। इस प्रकार, यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जैन-विचारकों की दृष्टि में स्यात् शब्द संशयपरक न होकर अनैकान्तिक, किन्तु निश्चयात्मक-अर्थ का द्योतक है। मात्र इतना ही नहीं, जैन-दार्शनिक इस सम्बन्ध में भी सजग थे कि आलोचक या जन-साधारण द्वारा स्यात् शब्द का संशयपरक अर्थ ग्रहण किया जा सकता है, इसलिए उन्होंने स्यात् शब्द के साथ 'एव' शब्द के प्रयोग की योजना भी की है, जैसे'स्यादस्त्येव घटः', अर्थात्, किसी अपेक्षा से यह घड़ा ही है। यह स्पष्ट है कि “एव' शब्द निश्चयात्मकता का द्योतक है। 'स्यात' तथा 'एव' शब्दों का एक साथ प्रयोग श्रोता की संशयात्मकता का द्योतक है। ‘स्यात्' तथा 'एव' शब्दों का एक साथ प्रयोग श्रोता को संशयात्मकता को समाप्त कर उसे सापेक्षिक किन्तु निश्चित ज्ञान प्रदान करता है। वस्तुतः, इस प्रयोग में ‘एव' शब्द 'स्यात' शब्द की अनिश्चितता को समाप्त कर देता है और इस प्रकार