________________ जैन धर्म एवं दर्शन-429 जैन ज्ञानमीमांसा-137 उस दोष के भय से एकान्त को स्वीकार करता है, वहीं स्याद्वादी उसके आगे 'स्यात्' शब्द रखकर उस दूषित एकान्त को निर्दोष बना देता है। दोनों में यदि कोई मौलिक भेद है, तो वह अपनी निषेधात्मक और विधानात्मक-दृष्टियों का ही है। शून्यवाद का वस्तुतत्त्व जहाँ चतुष्कोटिविनिर्मुक्त शून्य है, वहीं जैन-दर्शन का वस्तुतत्त्व अनन्तधर्मात्मक है, किन्तु शून्य और अनन्त का गणित तो समान ही है, वह उस दृष्टि का ही परिणाम है, जो वैचारिक-आग्रहों से जनमानस को मुक्त करने के लिए बुद्ध और महावीर ने प्रस्तुत की थी। बुद्ध के निषेधात्मक-दृष्टिकोण का परिणाम शून्यवाद था, तो महावीर के विधानात्मक-दृष्टिकोण का परिणाम स्याद्वाद। इस प्रकार, हम देखते हैं कि ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में परमतत्त्व, आत्मा और लोक के स्वरूप एवं सृष्टि के विषय में अनेक मतवाद प्रचलित थे। यद्यपि औपनिषदिक-ऋषियों ने इनके समन्वय का प्रयत्न किया था, किन्तु वे एक ऐसी दार्शनिक-पद्धति का विकास नहीं कर पाये थे, जो इन मतवादों की दार्शनिक एवं व्यावहारिक-असंगतियों और कठिनाइयों का निराकरण कर सके। ये परस्पर विरोधी दार्शनिक-मत एक-दूसरे की आलोचना में पड़े थे और इसके परिणामस्वरूप आध्यात्मिक-विशुद्धि या राग-द्वेष, आसक्ति या तृष्णा से विमुक्ति का प्रयत्न गौण हो गया था। सभी दार्शनिक-मत एक-दूसरे की आलोचना में पड़े थे और इसके परिणामस्वरूप आध्यात्मिक-विशुद्धि या राग-द्वेष, आसक्ति या तृष्णा से विमुक्ति का प्रश्न गौण था। सभी दार्शनिक-मतवाद अपने-अपने आग्रहों में दृढ़ बनते जा रहे थे, अतः सामान्य मनुष्य की दिग्भ्रान्त स्थिति को समाप्त करने और इन परस्पर विरोधी मतवादों के आग्रही घेरों से मानव को मुक्त करने के लिए बुद्ध व महावीर-दोनों ने प्रयत्न किया, किन्तु दोनों के प्रयत्नों में महत्त्वपूर्ण अन्तर था। बुद्ध कह रहे थे कि ये सभी दृष्टिकोण एकान्त हैं, अतः उनमें से किसी को भी स्वीकार करना उचित नहीं है। किसी भी दृष्टि से न जुड़कर तृष्णा-विमुक्ति के हेतु प्रयास कर दुःख-विमुक्ति को प्राप्त करना ही मानव का एकमात्र लक्ष्य है। बुद्ध की इस निषेधात्मक-दृष्टि का परिणाम यह हुआ कि बौद्ध-दर्शन में आगे चलकर