________________ जैन धर्म एवं दर्शन-552 जैन- आचार मीमांसा-84 कहता है कि सामाजिक-जीवन में समान वितरण भी आवश्यक है। बुद्ध और महावीर के द्वारा अपने भिक्षुसंघ में प्रतिपादित यह नियम कि 'उपलब्धियों का संविभाग करके भोग करना चाहिए', समवितरण के सिद्धान्त का प्रयोग ही था। इस प्रकार, वैयक्तिक-परिग्रह की मर्यादा और समवितरण, साम्यवाद और जैन-दर्शन दोनों को स्वीकृत है। ... समत्व का संस्थापन- जैन-आचारदर्शन और साम्यवादी चिन्तनदोनों समत्व की संस्थापना को आवश्यक मानते हैं। यद्यपि साम्यवाद आर्थिक-समानता को ही महत्वपूर्ण मानताहै। उसके लिए समानता का अर्थ है- शोषणरहित समाज-व्यवस्था। जैन-दर्शन मानसिक-समत्व की स्थापना पर बल देता है। ‘साम्य' दोनों को अभिप्रेत है, फिर भी साम्यवाद में साम्य का अर्थ भौतिक या आर्थिक-साम्य है, जबकि जैन-दर्शन में साम्य का अर्थ चैत्तसिक-साम्य है। जैन-दर्शन में साम्य के संस्थापनका सूत्र प्रत्येक व्यक्ति की मनोभूमि से प्रारम्भ होकर सामाजिक जीवन में अभिव्यक्त होता है। साम्यवाद में समत्व का संस्थापन सामूहिक प्रयत्न से होता है, वह सामाजिक-साधना है। समत्व नैतिकता का प्रमापक- साम्यवाद में वे कर्म नैतिक माने जाते हैं, जो आर्थिक क्षेत्र में समत्व की स्थापना करते हैं, जो सामाजिक एवं आर्थिक समानता को बनाए रखते हैं तथा जो शोषण को समाप्त करते हैं। जैन-दर्शन में भी वे कर्म नैतिक माने जाते हैं, जो समत्व को नैतिकता का प्रमापक मानते हैं, यद्यपि दोनों का साम्य का अर्थ थोड़ा भिन्न है। साम्यवाद का परमशुभ शोषणरहित वर्गविहीन साम्यवादी-समाज की रचना है, जबकि जैन-दर्शन का परमशुभ समभाव या वीतरागदशा की प्राप्ति है। फिर भी, दोनों के लिए समत्व, समानता या समाता के प्रत्यय समान रूप से नैतिकता के प्रमापक हैं। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-दर्शन और साम्यवादी विचारधारा कुछ अर्थों में एक-दूसरे के निकट हैं। महावीर और बुद्ध की भिक्षुसंघ-व्यवस्था साम्यमूलक समाज-व्यवस्था का ही एक रूप.थी, जिसमें योग्यता के अनुरूप कार्य या साधना ओर आवश्यकता के अनुरूप उपलब्धि का सिद्धान्त भी किसी रूप में स्वीकृत था। फिर भी बाह्य-रूप