________________ जैन धर्म एवं दर्शन-547 जैन- आचार मीमांसा-79 नहीं है। किर्केगार्ड के अनुसार यदि विषाद या दुःखानुभूति क्षणिक है, तो व्यक्ति बाह्य-संसार में सापेक्ष वस्तुगत सुखों के भोग में अनुराग लेने लगता है, लेकिन बाह्य सांसारिकसुख और आन्तरिक अनन्त आनन्द-दोनों को एक साथ प्राप्त नहीं किया जा सकता। वह अपनी प्रसिद्ध पुस्तक " " में कहता है कि या तो हम सांसारिक-सुखों के भोग में अनुरक्त रहें और आत्मगत निरपेक्ष आनन्द को प्राप्त न करें, सांसारिक वस्तुगत सापेक्ष-सुखों को छोड़कर परम आनन्द की उपलब्धि करने हेतु जैसे-जैसे व्यक्ति को भोगमय जीवन की अपूर्णता ओर हीनता का बोध होने लगता है, वैसे-वैसे वह अन्तर्मुखी होता जाता है और निरपेक्ष आनन्द-सत् और शुभ के प्रति उसकी अभिरुचि बढ़ती जाती है। इस प्रकार, सत्तावाद के अनुसार जीवन का सार बाह्य वस्तुगत सुख नहीं, वरन् शाश्वत, अनन्त, पूर्ण और निरपेक्ष आत्मिक-आनन्द है। . . जैन-आचारदर्शन भी सत्तावाद के समान जीवन का परमसाध्य वस्तुगत नश्वर सुखों को नहीं, वरन् शाश्वत आत्मिक-आनन्द को ही स्वीकार करता है। जैन-विचारकों ने भी भौतिक सुखों को क्षणिक और दुःखपर्ण मानकर उनके परित्याग का ही निर्देश दिया है। यद्यपि यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन-दर्शन ओर किर्केगार्ड-दोनों ही यह मानते हैं कि भौतिक-जीवन एवं शरीर की पूर्ण उपेक्षा सम्भव नहीं है। किर्केगार्ड के अनुसार मनुष्य को कम से कम ईश्वर का सान्निध्य और आनन्द प्राप्त करने के लिए तो शरीर को स्वस्थ रखना पड़ेगा और इसलिए थोड़ा-बहुत ईश्वर को भूलकर भी शरीर का रक्षण किया जाता है। यद्यपि शरीर-रक्षा एवं भौतिक-जीवन के जीने में कुछ समय के लिए परमात्मा के सान्निध्य से दूर हो जाते हैं, लेकिन ये वंचित क्षण व्यक्ति में तीव्र आत्मग्लानि पैदा करते हैं और व्यक्ति पुनः उस अवस्था में लौट जाना चाहता है। जैन-आचारदर्शन के गुणस्थान-सिद्धान्त में इसी तथ्य को अत्यन्त सूक्ष्मता से समझाया या है। उसमें बताया गया है कि सच्चा साधक (अप्रमत्त मुनि) सदैव ही आत्मरमण में लीन रहता है, लेकिन वह भी दैहिक-क्रियाओं के निमित्त उस आत्मरमण के अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान से नीचे