________________ जैन धर्म एवं दर्शन-469 जैन - आचार मीमांसा-1 विभाग -4 जैन आचार मीमांसा जैनदर्शन में नैतिकनिर्णय, स्वरूप, विषय एवं आधार .. मनुष्य एक विचारशील प्राणी है, और इसलिए चिन्तन करना उसका मुख्य लक्षण है। विचार और आचार मानव जीवन के ये दो पक्ष है। आचार जब विचार से समन्वित होता है, तब जीवन में विवेक प्रकट होता है। विवकपूर्ण आचरण में मानव जीवन की विशेषता है। पशु और मनुष्य में यही अन्तर है कि पशु मूल प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर आचरण करता है, जबकि मनुष्य विवेकपूर्ण ढंग से आचरण कर सकता है। विवेकपूर्ण आचरण ही मनुष्य और पशुओं में अन्तर करता है, और यही विवेकपूर्ण आचरण नैतिकता की कोटि में होता है। नीतिशास्त्र आचरण के क्षेत्र में उचित और अनुचित या नैतिक-अनैतिक का विवेक सिखाता है। आचार-दर्शन का मुख्य उद्देश्य विवेक के आधार पर आचरण के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण करता है। प्रश्न चाहे उचित और अनुचित के विवेक का हो, चाहे जीवन के आदर्श के निर्धारण का हो अथवा किसी कर्म की नैतिक समीक्षा का हो - आचार-दर्शन का ज्ञान आवश्यक है। नीतिशास्त्र का अध्ययन हमारे व्यवहारिक जीवन को प्रभावित करता है, अतः नीतिशास्त्र का सम्बन्ध हमारे व्यवहारिक जीवन से है। नीतिशास्त्र में आज अनेक प्रकार की समस्याएँ है और जैन आचार्यों ने उन समस्याओं के निराकरण के लिए कौनसी दृष्टि प्रदान की है-यही जैन आचार-दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य है। नैतिक निर्णय की दृष्टि:-निश्चय या व्यवहार/निरपेक्ष या सापेक्ष - जैन दर्शन में तत्त्वज्ञान की अपेक्षा से निश्चय और व्यवहार इन दो विधाओं का चित्रण हुआ है। जैन आचार-दर्शन मुख्य रूप से आचार के बाह्य पक्ष या व्यवहार नय को ही प्रधानता देता है। जैन आचारदर्शन की विशेषता यह हैं कि वह निश्चय और व्यवहार दोनों को अपने में समेटे हुए है। श्रीमद राजचन्द्र ने कहा था कि