________________ जैन धर्म एवं दर्शन-503 जैन - आचार मीमांसा-35 का स्वभाव है। सैमुअल का चौथा सिद्धान्त आत्मसंयम का सिद्धान्त है, जिसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य का अपने प्रति भी कुछ कर्तव्य है और वह यह कि अपनी वासनाओं ओर क्षुधाओं को नियन्त्रित करे। जैनआचारदर्शन मेंआत्मसंयम का महत्वपूर्ण स्थान है। समग्र जैनआचारदर्शन के नियम आत्मसंयम के लिए हैं। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैनदर्शन में सैमुअल के चारों ही सिद्धान्तों को मोटे रूप से स्वीकार किया गया है। विलियम वुलेस्टन आन्तरिक-विधानवाद के सिद्धान्तों में बुद्धिवाद का प्रमुख व्याख्याता है। उसके अनुसार नैतिकता तार्किक-सत्य है और नैतिकता तार्किक-मिथ्यात्व है। वुलेस्टन शुभाशुभ की मीमांसा में बुद्धि के द्वारा प्रकाशित शुभ का परित्याग एक प्रकार का आत्मविरोध या आत्मप्रवंचना है। जैनविचारकों ने वुलेस्टन की इस धारणा का समर्थन किया है। धर्म की समीक्षा में बुद्धि का महत्वपूर्ण योगदान जैनविचारणा को मान्य है। कहा गया है कि 'साधक को प्रज्ञा के द्वारा ही धर्म की समीक्षा करनी चाहिए। विज्ञान (विवेकज्ञान) से ही धर्म के साधनों का निर्णय होता है। (आ) नैतिक-इन्द्रियवाद और जैनदर्शन- नैतिक-इन्द्रियवाद के विचारकों के अनुसार शुभ और अशुभ का बौध बुद्धि के द्वारा नहीं, नैतिक-इन्द्रिय के द्वारा होता है। जिस प्रकार हम सुन्दर और असुन्दर में भेद करते हैं, ठीक उसी प्रकार शुभ और अशुभ में विवेक करते हैं। मनुष्य का अन्तःकरण ऐसा है, जो शुभ और अशुभ में अन्तर स्थापित कर देता है। इस सम्प्रदाय के विचारकों में शेफ्ट्सबरी, हचिसन और जॉन रस्किन प्रमुख हैं। ये सब विचारक इस बात में एकमत हैं कि शुभ और अशुभ का निर्णय आन्तरिक भावना के आधार पर करते हैं। शेफ्ट्स बरी ने तीन प्रकार की भावनाएँ मानी हैं- (1) अस्वाभाविक या असामाजिक भावनाएँ, जिनमें राग-द्वेष जन्यं वृत्तियाँ आती हैं, (2) सामाजिक भावनाएँ, जिनमें दया, परोपकार, वात्सल्य, मैत्री इत्यादि की भावना हैं और (3) आत्मभावनाएँ, जिनमें आत्मप्रेम, जीवनप्रेम इत्यादि हैं। तुलनात्मक दृष्टि से इन तीनों प्रकार की भावनाओं की तुलना जैनदर्शन के तीन उपयोगों से की जा सकती है। जैनदर्शन के अनुसार निम्न तीन उपयोग हैं- (1) अशुभोपयोग, (2) शुभोपयोग और (3) शुद्धोपयोग। अशुभोपयोग असामाजिक या