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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-500 जैन- आचार मीमांसा-32 आवश्यक अंग माना गया है। सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रों की आज्ञाओं का पालन करना प्रत्येक गृहस्थ एवं श्रमण के लिए आवश्यक है। आचारांगसूत्र में महावीर कहते हैं कि मेरी आज्ञाओं का पालन धर्म है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-परम्परा में भी विधानवाद का स्थान है। जैन-आचारदर्शन वीतराग पुरुषों अथवा तीर्थंकरों के आदेशों को नैतिक-जीवन का प्रतिमान स्वीकार करता है। फिर भी, इतना स्पष्ट है कि यदि नैतिकता के प्रतिमान के रूप में बाह्य-आदेशों को ही सब कुछ मान लिया गया, तो नैतिकता आन्तरिक-वस्तु नहीं रह जाएगी। बाह्य-आदेशों का पालन करना चाहिए' के स्थान पर 'करना पड़ेगा' की प्रकृति का होता है। वह बहुत-कुछ पुरस्कार की आशा एवं दण्ड के भय पर निर्भर होता है, अतः उसे पूर्ण रूप से नैतिकता का प्रतिमान स्वीकार नहीं किया जा सकता। नैतिक-जीवन में ईश्वर, बुद्ध या जिन के वचन मार्गदर्शक हो सकते हैं, लेकिन कर्त्तव्य की भावना का उद्भव तो हमारे अन्दर से ही होना चाहिए। अमनस्क-भाव से बाह्य आदेशों का पालन नैतिक नहीं कहा जा सकता, नैतिकता अन्तरात्मा की वस्तु है। उसे बाह्य-विधानों के आश्रित नहीं माना जा सकता। ... आन्तरिक-विधानवाद आन्तरिक या अन्तरात्मक-विधानवाद के अनुसार शुभ और अशुभ का निर्णायक-तत्त्व व्यक्ति की अन्तरात्मा है। अपनी अन्तरात्मा के अनुसार आचरण करना शुभ और उसके प्रतिकूल आचरण करना अशुभ माना गया है। पाश्चात्य–परम्परा में अन्तरात्मक-विधानवाद के प्रतिपादकों में हेनरी मोर, रल्फ कडवर्थ, सैमुअल क्लार्क, विलियम वुलेस्टन, शैफ्ट्सबरी, हचिसन और बटलर की एक लम्बी परम्परा है। समकालीन चिन्तकों में एडवर्ड वेस्टरमार्क, अर्थर केनिआन रोजर्स और फ्रेंक चेपमेन शार्प प्रमुख हैं। भारतीय परम्परा में आन्तरिक-विधानवाद का समर्थन मनु के युग से ही मिलता है। मनु ने मनःपूतं समाचरेत कहकर इसी अन्तरात्मक-विधानवाद का समर्थन किया है। महाभारत के अनुशासनपर्व में भी कहा गया है, 'सुख-दुःख, प्रिय–अप्रिय, दान और त्याग, सभी में अपनी आत्मा को प्रमाण मानकर ही व्यवहार करना चाहिए।
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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