________________ जैन धर्म एवं दर्शन-498 जैन- आचार मीमांसा-30 है, जिनसे सम्यक्त्व और व्रतों में कोई दोष नहीं लगता। जैनपरम्परा के अनुसार सामाजिक नियम, यदि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधक हैं, तो वे त्याज्य ही हैं। स्थानांगसूत्र में नगरधर्म, ग्रामधर्म आदि के रूप में लौकिक-विधानों को मान्यता प्रदान की गई, फिर भी उन्हें नैतिकता का प्रतिमान नहीं कहा जा सकता। जैन दार्शनिकों ने व्यावहारिक दृष्टिकोण से उनका मूल्य स्वीकार किया है। गीता में भी कुलधर्म, जाति-मर्यादा आदि के रूप में सामाजिकविधानवाद का समर्थन हुआ है। अर्जुन युद्ध से इसीलिए बचना चाहता है कि उससे कुलधर्म और जातिधर्म के नष्ट होने की सम्भावना दिखाई देती है। भारतीय परम्परा में धर्म-अधर्म की व्यवस्था के लिए सामाजिक–नियमों एवं परम्पराओं को स्थान अवश्य दिया गया है, फिर भी वे भारतीय-दर्शन में नैतिकता के चरम प्रतिमान नहीं हैं। (आ) वैधानिक-विधानवाद-विधानवादी सिद्धान्तों का एक प्रकार यह भी है, जिसमें राजकीय-नियमों को ही नैतिकता का प्रमापक मान लिया जाता है। आधुनिक युग में वैधानिक नियमों की उत्पत्ति समाजनिरपेक्ष नहीं है, इसलिए सामाजिक-विधानवाद और वैधानिक-विधानवाद में अन्तर करना उचित न होगा। हाँ, प्राचीन युग में, जबकि राजा ही वैधानिक-नियमों का नियामक होता था, वैधानिक-विधानवाद नैतिक-प्रतिमान का एक महत्वपूर्ण अंग था। भोजप्रबन्ध के अनुसार राजा के वचन या विधान से पवित्र आत्मा भी अपवित्र हो जाता है और अपवित्र आत्मा भी पवित्र बन जाता है। र.ज्य के नियमों का परिपालन जैनआचारदर्शन में भी स्वीकृत है। राज्य नियमों के विरुद्ध काम करने को जैन-दार्शनिकों ने अनैतिक कर्म कहा है। श्रमण और गृहस्थ-दोनों के लिए ही राजकीय-मर्यादाओं का उल्लंघन अनुचित था। फिर भी, जैन-आचारदर्शन के अनुसार राजकीय-नियम नैतिकता का प्रतिमान नहीं हो सकते, क्योंकि राज्यनियमों का विधान जिन लोगों के द्वारा किया जाता है, वे राग और द्वेष से मुक्त नहीं होते, इसलिए उनके आदर्श पूर्णतया प्रामाणिक नहीं कहे जा सकते। राज्य के नियम परिवर्तनशील होते हैं तथा विभिन्न देशों एवं समयों में अलग-अलग होते हैं, जबकि नैतिक-प्रतिमान को अपेक्षाकृत