SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-746 जैन- आचार मीमांसा -278 हुआ करते हैं - 1. एकान्त-ध्यान का संकल्प और 2. प्राणियों के हित का संकल्प। बोधि प्राप्त कर लेने पर बुद्ध ने अद्वितीय समाधिसुख में विहार करने के निश्चय का परित्याग कर लोकहितार्थ एवं लोकमंगल के लिए परिचारण करना ही स्वीकार किया। यह उनकी लोकमंगलकारी-दृष्टि का सबसे बड़ा प्रमाण है। यही नहीं, बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को लोकहित का ही सन्देश दिया और कहा कि हे भिक्षुओं! बहुजनों के हित के लिए, बहुजनों के सुख के लिए, लोक की अनुकम्पा के लिए, देव और मनुष्यों के सुख और हित के लिए परिचारण करते रहो। जातक-निदान कथा में भी बोधिसत्व को यह कहते हुए दिखाया गया है कि मुझ शक्तिशाली पुरुष के लिए अकेले तर जाने से क्या लाभ? मैं तो सर्वज्ञता प्राप्त कर देवताओं सहित इस सारे लोक को तारूँगा। बौद्ध धर्म की महायान-शाखा ने तो लोकमंगल के आदर्श को ही अपनी नैतिकता का प्राण माना। वहाँ तो साधक लोकमंगल के आदर्श की साधना में परममूल्य निर्वाण की भी उपेक्षा कर देता है, उसे अपने वैयक्तिक-निर्वाण में कोई रुचि नहीं रहती है। महायानी-साधक कहता है-दूसरे प्राणियों को दुःख से छुड़ाने में जोआनन्द मिलता है, वही बहुत काफी है। अपने लिए मोक्ष प्राप्त करना नीरस है, उससे हमें क्या लेना-देना।28। लंकावतारसूत्र में बोधिसत्व से यहाँ तक कहलवा दिया गया कि मैं तब तक परिनिर्वाण में प्रवेश नहीं करूँगा, जब तक कि विश्व के सभी प्राणी विमुक्ति प्राप्त न कर लें। साधक परदुःख-विमुक्ति से मिलने वाले आनन्द को स्व के निर्वाण के आनन्दसे भी महत्वपूर्ण मानता है और उसके लिए अपने निर्वाण-सुख को ठुकरा देता है। पर-दुःख-कातरता और सेवा के आदर्श का इससे बड़ा संकल्प और क्या हो सकता है ? बौद्ध दर्शन की लोकहितकारी-दृष्टि का रसपरिपाक तो हमें आचार्य शान्तिदेव के ग्रन्थ शिक्षा समुच्चय और बोधिचर्यावतार में मिलता है। लोकमंगल के आदर्श को प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं, अपने सुख को अलग रख और दूसरों के दुःख (दूर करने) में लग'। दूसरों का सेवक बनकर इस शरीर में जो कुछ वस्तु देख, उससे दूसरों का हित कर।" दूसरे के दुःख से अपने सुख को बिना बदले बुद्धत्व की सिद्धि नहीं हो सकती / फिर संसार में सुख है ही कहाँ ? " यदि एक के दुःख उठाने से बहुत का दुःख चला जाए, तो अपने-पराए पर कृपा करके वह दुःख उठाना ही चाहिए। बोधिसत्व की लोकसेवा की भावना का चित्र प्रस्तुत करते हुए आचार्य लिखते हैं, मैं अनाथों का नाथ बनूँगा, यात्रियों का सार्थवाह बनूंगा, पार जाने की इच्छावालों के लिए मैं नाव बनूँगा, मैं उनके लिए सेतु बनूंगा, धरनियाँ बनूँगा। दीपक चाहने वालों के लिए दीपक बनूँगा, जिन्हें शय्या की आवश्यकता है, उनके लिए मैं शय्या बनूँगा, जिन्हें दास की आवश्यकता है, उनके लिए दास बनूँगा, इस प्रकार मैं जगती के सभी प्राणियों की सेवा करूँगा। 34 जिस प्रकार पृथ्वी, अग्नि आदि भौतिक-वस्तुएँ सम्पूर्ण
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy