________________ जैन धर्म एवं दर्शन-736 जैन- आचार मीमांसा -268 यदि संन्यासी नहीं है और यदि लोक की उपेक्षा करता है, लोकमंगल के लिए प्रयास नहीं करता है, तो वह भी संन्यासी नहीं है। उसके जीवन का मिशन तो 'सर्वभूत-हिते रतः' का है। संन्यास में राग से ऊपर उठना आवश्यक है, किंतु इसका तात्पर्य समाज की उपेक्षा नहीं है। संन्यास की भूमिका में स्वत्व एवं ममत्व के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है, फिर भी वह पलायन नहीं, अपितु समर्पण है। ममत्व का परित्याग कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं है, अपितु कर्तव्य का सही बोध है। संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता है, जहाँ व्यक्ति अपने में समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है। उसकी चेतना अपने और पराए के भेद से ऊपर उठ जाती है। यह अपने और पराए के विचार से ऊपर होजाना समाजविमुखता नहीं है, अपितु यह तो उसके हृदय की व्यापकता है, महानता है, इसलिए भारतीयचिन्तकों ने कहा है अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतमास्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् // संन्यास की भूमिका नतोआसक्ति की भूमिका है और म उपेक्षा की। उसकी वास्तविक स्थिति धाय' (नर्स) के समान ममत्वरहित कर्त्तव्य-भाव की होती है। जैन धर्म में कहा भी गया है सम दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल। अन्तर सूं न्यारा रहे जूं धाय खिलावे बाल॥ वस्तुतः, निर्ममत्व एवं निःस्वार्थ भाव से तथा वैयक्तिकता और स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्तव्य का पालन ही संन्यास की सच्ची भूमिका है। संन्यासी वह व्यक्ति है, जो लोक-मंगल के लिए अपने व्यक्तित्व एवं अपने शरीर को समर्पित कर देता है। वह जो कुछ भी त्याग करता है, वह समाज के लिए एक आदर्श बनता है। समाज में नैतिक-चेतना को जाग्रत करना तथा सामाजिक-जीवन में आने वाली दुःप्रवृत्तियों से व्यक्ति को बचाकर लोकमंगल के लिए उसे दिशा-निर्देश देना संन्यासी का सर्वोपरि कर्तव्य माना गया है, अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय-दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है, वह सामाजिकता की विरोधी नहीं है / संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति होता है, जो आदर्श समाज-रचना के लिए प्रयत्नशील रहता है। अब हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक-उपादेयता पर चर्चा करना चाहेंगे /