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________________ जैन धर्म एवं दर्शन-730 जैन- आचार मीमांसा-262 'हे प्रभु! हमारे मनों में प्राणियों के प्रति मित्रता, गुणीजनों के प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करुणा तथा दुष्ट जनों के प्रति मध्यस्थ-भाव सदा विद्यमान रहे।' इस प्रकार, इन भावनाओं के माध्यम से समाज के विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों से हमारे सम्बन्ध किस प्रकार के हों, यही स्पष्ट किया गया है। समाज में दूसरे लोगों के साथ हम किस प्रकार जीवन जिएं, यह हमारी सामाजिकता के लिए अति आवश्यक है और इन दर्शनों में इस प्रकार से व्यक्ति को समाज-जीवन से जोड़ने का ही प्रयास किया गया है। इन दर्शनों का हृदय रिक्त नहीं है। इनमें प्रेम और करुणा के लिए अटूट धारा बह रही है। तीर्थंकर की वाणी का प्रस्फुटन ही लोक की करुणा के लिए होता है (समेच्च लोये खेयन्ने पव्वइये), इसीलिए तो आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं - 'सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव', हे प्रभो! आपका अनुशासन सभी दुःखों का अन्त करने वाला और सभी का कल्याण (सर्वोदय) करने वाला है।' जैन-आगमों में प्रस्तुत कुल-धर्म, ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म एवं गण-धर्म भी उसकी समाज-सापेक्षता को स्पष्ट कर देते हैं। त्रिपिटक में भी अनेक संदर्भो में व्यक्ति के विविध सामाजिक-सम्बन्धों के आदर्शों का चित्रण किया गया है। पारिवारिक और सामाजिक-जीवन में हमारे पारस्परिक-सम्बन्धों को सुमधुर एवं समायोजनपूर्ण बनाने तथा सामाजिक-टकराव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें दूर करने के लिए इन दर्शनों का महत्वपूर्ण योगदान है। ___वस्तुतः, इन दर्शनों में आचार-शुद्धि पर बल देकर व्यक्ति-सुधार के माध्यम से समाज-सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। इन्होंने व्यक्ति को समाज का केन्द्र माना और इसलिए उसके चरित्र के निर्माण पर बल दिया / वस्तुतः, इन दर्शनों के युग तक समाज-रचना का कार्य पूरा हो चुका था, अतः इन्होंने मुख्य रूप से सामाजिक-बुराइयों को समाप्त करने का प्रयास किया और सामाजिक-सम्बन्धों की शुद्धि पर बल दिया। रागात्मकता और समाज सम्भवतः, इन दर्शनों को जिन आधारों पर सामाजिक-जीवन से कटा हुआ माना जाता है, उनमें प्रमुख हैं - राग या आसक्ति का प्रहाण, संन्यास या निवृत्तिमार्ग की प्रधानता तथा मोक्ष का प्रत्यय / ये ही ऐसे तत्त्व हैं, जो व्यक्ति को सामाजिक-जीवन से अलग करते हैं, अतः भारतीय-संदर्भ में इन प्रत्ययों की सामाजिक-दृष्टि से समीक्षा आवश्यक है। सर्वप्रथम, भारतीय-दर्शन आसक्ति, राग या तृष्णा की समाप्ति पर बल देता है,
SR No.004418
Book TitleJain Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2015
Total Pages288
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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