________________ जैन धर्म एवं दर्शन-728 जैन- आचार मीमांसा-260 यह विभाजन किन्हीं निहित स्वार्थों के कारण जन्मना बना दिया गया। वस्तुतः, वेदों में एवं स्वयं गीता में भी जो विराट् पुरुष के विभिन्न अंगों से उत्पत्ति के रूप में वर्गों की अवधारणा है, वह अन्य कुछ नहीं, अपितु समाज-पुरुष के विभिन्न अंगों की अवधारणा है और किसी सीमा तक समाज के आंगिकता-सिद्धांत का ही प्रस्तुतिकरण है। सामाजिक-जीवन में विषमता एवं संघर्ष का एक महत्वपूर्ण कारण सम्पत्ति का अधिकार है। श्रीमद्भागवत भी ईशावास्योपनिषद् के समान ही सम्पत्ति पर व्यक्ति के अधिकार को अस्वीकार करती है। उसमें कहा गया है - . . यावत् भ्रियेत जठरं, तावत् स्वत्वं देहिनाम्। .. अधिको योऽभिमन्येत, स स्तेनो दण्डमर्हति // " अर्थात्, अपनी दैहिक-आवश्यकता से अधिक सम्पदा पर अपना स्वत्व मानना सामाजिक-दृष्टि से चोरी है, अनधिकृत चेष्टा है। आज का समाजवाद एवं साम्यवाद भी इसी आदर्श पर खड़ा है, 'योग्यता के अनुसार कार्य और आवश्यकता के अनुसार वेतन' की उसकी धारणा यहाँ पूरी तरह उपस्थित है। भारतीय-चिन्तन में पुण्य और पाप का जो वर्गीकरण है, उसमें भी सामाजिक-दृष्टि ही प्रमुख है। पाप के रूप में जिन दुर्गुणों का और पुण्य के रूप में जिन सद्गुणों का उल्लेख है, उनका सम्बन्ध वैयक्तिकजीवन की अपेक्षा सामाजिक-जीवन से अधिक है। पुण्य और पाप की एकमात्र कसौटी है - किसी कर्म का लोक-मंगल में उपयोगी या अनुपयोगी होना। कहा भी गया है - 'परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीडनम्' , जो लोक के लिए हितकर है, कल्याणकर है, वह पुण्य है और इसके विपरीत, जो भी दूसरों के लिए पीड़ा-जनक है, अमंगलकर है, वह पाप है। इस प्रकार, भारतीयचिन्तन में पुण्य-पाप की व्याख्याएँ भी सामाजिक-दृष्टि पर ही आधारित हैं। जैन एवं बौद्धधर्म में सामाजिक-चेतना ___ यदि हम निवर्तक-धारा के समर्थक जैनधर्म एवं बौद्धधर्म की ओर दृष्टिपात करते हैं, तो प्रथम दृष्टि में ऐसा लगता है कि इनमें समाज की दृष्टि की उपेक्षा की गई है / सामान्यतया, यह माना जाता है कि निवृत्ति-प्रधान दर्शन व्यक्ति परक और प्रवृत्तिप्रधान दर्शन समाज-परक होते हैं, किन्तु यह मान लेना कि भारतीय-चिन्तन की निवर्तकधारा के समर्थक जैन, बौद्ध आदि दर्शन असामाजिक हैं या इन दर्शनों में सामाजिक