________________ जैन धर्म एवं दर्शन-725 जैन- आचार मीमांसा -257 जीवन-शैली उनका मूल मंतव्य था। प्रत्येक अवसर पर शांति-पाठ के माध्यम से वे जन-जन में सामाजिक-चेतना के विकास का प्रयास करते थे। वे अपने शांति-पाठ में कहते थे ॐ सहना भवतु सहनौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै, तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।' हम सब साथ-साथ रक्षित हों , साथ-साथ पोषित हों, साथ-साथ सामर्थ्य को प्राप्त हों, हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, हम आपस में विद्वेष न करें। वैदिक समाज-दर्शन का आदर्श था - 'शत-हस्तः समाहर, सहस्रहस्तः सीकर' सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों से बाँटो, किन्तु यह बाँटने की बात दया या कृपा नहीं है, अपितु सामाजिक-दायित्व का बोध है, क्योंकि भारतीय-चिंतन में दान के लिए संविभाग शब्द का प्रयोग होता रहा है, इसमें सम वितरण या सामाजिक-दायित्व का बोध ही प्रमुख है, कृपा , दया, करुणा-ये सब गौण हैं। आचार्य शंकर ने दान की व्याख्या की है 'दानं संविभागं'। जैन-दर्शन में तो अतिथि-संविभाग के रूप में एक स्वतन्त्र व्रत की व्यवस्था की गई है। संविभाग शब्द करुणा का प्रतीक न होकर सामाजिक-अधिकार का प्रतीक है। वैदिक-ऋषियों का निष्कर्ष था कि जो अकेलाखाता है, वह पापी है (केवलादो भवति केवलादी)। जैन-दार्शनिक भी कहते थे 'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो,' जो सम-विभागी नहीं है, उसकी मुक्ति नहीं होगी। इस प्रकार, हम वैदिकयुग में सहयोग एवं सहजीवन का संकल्प उपस्थित पाते हैं, किन्तु उसके लिए दार्शनिकआधार का प्रस्तुतिकरण औपनिषदिक-चिन्तन में ही हुआ है / औपनिषदिक ऋषि 'एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा' 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' तथा 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' के रूप में एकत्व की अनुभूति करने लगा। औपनिषदिक-चिन्तन में वैयक्तिकता से ऊपर उठकर सामाजिक-एकता के लिए अभेदनिष्ठा का सर्वोत्कृष्ट तात्त्विक-आधार प्रस्तुत किया गया। इस प्रकार, जहाँ वेदों की समाज-निष्ठा बहिर्मुखी थी, वहीं उपनिषदों में आकर अन्तर्मुखी हो गई। भारतीय-दर्शन में यह अभेद-निष्ठा ही सामाजिक-एकत्व की चेतना एवं सामाजिक-समता का आधार बनी है। ईशावास्योपनिषद् का ऋषि कहता था यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति / सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते // - जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है, वह